महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 104 श्लोक 65-80

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चतुरधिकशततम (104) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुरधिकशततम अध्याय: श्लोक 65-80 का हिन्दी अनुवाद

इसलिये जब कोइ वृद्व पुरुष अपनें पास आवे, तब उसे प्रणाम करके बैठनें को आसन दे और स्‍वयं हाथ जोड़कर उसकी सेवा में उपस्थ्ति रहे। फि‍र वह जानें लगे,तब उसके पीछे- पीछे कुछ दूर तक जाय । फटे हुये आसन पर न बैठे। टी हुई कांसी की थाली को काम में न ले। एक ही वस्‍त्र (केवल धोती) पहनकर भोजन न करें।(साथ में गमछा भी लिये रहे) नग्‍न होकर स्‍नान न करें । नंगे होकर न सोये। उच्छिष्‍ट अवस्‍था में भी शयन न करें। जूठे हाथ से मस्‍तक का स्‍पर्श न करें, क्‍यों कि समस्‍त प्राण मस्‍तक के ही आश्रित है । सिर के बाल पकड़कर खींचना और मस्तक पर प्रहार करना वर्जित है। दोनों हाथ सटाकर उनसे अपना सिर न खुजलावे। बारंबार मस्‍तक पर पानी न ड़ाले। इन सब बातों के पालन से मनुष्‍य की आयु क्षीण नहीं होती है । सिर पर तेल लगाने के बाद उसी हा‍थ से दूसरे अंगों का स्‍पर्श नहीं करना चाहिये और तिल के बने हुए पदार्थ नहीं खाने चाहिए। ऐसा करने से मनुष्‍य की आयु क्षीण नहीं होती है । जूठे मुंह न पढ़ावे तथा उच्छिष्‍ट अवस्‍था में स्‍वयं भी कभी स्‍वाध्‍यायन करे। यदि दुर्गन्‍ध युक्‍तवायु चले, तब तो मन से स्‍वाध्‍याय का चिंतन भी नही करना चाहिये । प्राचीन इतिहास के जानकार लोग इस विषय में यमराज की गायी हुइ गाथा सुनाया करते हैं। (यमराज कहते है-) ‘जो मनुष्‍य जूठे मुंह उठकर दौड़ता और स्‍वाध्‍याय करता है, मैं उसकी आयु नष्‍ट कर देता हूं और उसकी संतानों को भी उससे छीन लेता हूं। ‘जो मनुष्‍य जूठे मुंह उठकर दौड़ता और स्‍वाध्‍याय करता है, मैं उसकी आयु नष्‍ट कर देता हूं और उसकी संतानों को भी उससे छीन लेता हूं। जो द्विज मोहवश अनध्‍याय के समय भी अध्‍ययन करता है, उसके वैदिक ज्ञान और आयु का भी नाश हो जाता है। ‘अत: सावधान पुरुष को निषिद्ध समय में कभी वेदों का अध्‍ययन नहीं करना चाहिये । जो सूर्य, अग्नि, गौ तथा ब्राह्माणों की ओर मूंह कर के पेशाब करते हैं और जो बीच रास्‍ते में मूतते हैं, वे सब गतायु हो जाते हैं । मूल और मूत्र दोनों का त्‍याग दिन में उत्‍तराभिमुख होकर करे और रात में दक्षिणाभिमुख। ऐसा करने से आयु का नाश नहीं होता । जिसे दीर्घ काल तक जीवित रहने की इच्‍छा हो, वह ब्राह्माण, क्षत्रीय और सर्प-इन तीनों के दुर्वल होने पर भी इनको न छेड़े; क्‍योंकि ये सभी बड़े जहरीले होते हैं। क्रोध में भरा हुआ सांप जहां तक आंखों से देख पाता है, वहां तक धावा करके काटता है। क्षत्रिय भी कुपित होने पर अपनी शक्तिभर शत्रु को भस्‍म करने की चेष्‍टा करता है; परंतु ब्राह्माण जब कुपित होता है, तब वह अपनी दृष्टि और संकल्‍प से अपमान करने वाले पुरुष के सम्‍पूर्ण कुल को दग्‍ध कर डालता है; इसलिये समझदार मनुष्‍य को यत्‍नपूर्वक इन तीनों की सेवा करनी चाहिये । गुरु के साथ कभी हठ नहीं ठानना चाहिये। युधिष्ठर। यदि गुरु अप्रसन्‍न हों तो उन्‍हें हर तरह से मान देकर मनाकर प्रसन्‍न करने की चेष्‍टा करनी चाहिये।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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