महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 107 श्लोक 68-88

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सप्ताधिकशततम (107) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्ताधिकशततम अध्याय: श्लोक 68-88 का हिन्दी अनुवाद

वह मानव देवकन्याओं के उस निवास स्थान में उतने वर्षों तक निवास करता है, जितने कि गंगाजी में बालू के कण हैं । जो जितेन्द्रिय पुरूष बारह महीनों तक प्रति पन्द्रहवें दिन में एक बार खाता और प्रति दिन अग्निहोत्र करता है, वह एक हजार राजसूय यज्ञ का सर्वोत्तम फल पाता है और हंस तथा मोरों से सेवित दिव्य विमान पर आरूढ होता है । वह विमान सुवर्ण पत्र से जटित तथा मणिमय मण्डलाकार चिन्हों से विचित्र शोभासम्पन्न है। दिव्य वस्त्राभूषणों शोभायमान सुंदरी रमणियां उसे सुशोभित किये रहती है । उस विमान में एक ही खम्भा होता है, चार दरवाजे लगे होते हैं। वह सात तल्लों से युक्त एवं परम मंगलमय विमान सहस्त्रों वैजयन्ती पताकाओं से सुशोभित तथा गीतों की मधुर ध्वनि से व्याप्त होता है । मणि, मोती और मूंगों से विभूषित वह दिव्य विमान विद्युत की सी प्रभा से प्रकासित तथा दिव्य गुणों सम्पन्न होता है। वह व्रतधारी पुरूष उसी विमान पर आरूढ़ होता है। उसमें गैडे और हाथी जुते रहते हैं तथा वहां एकसहस्त्र युगों तक वह निवास करता है । जो बारह महीनों तक प्रति सोलहवें दिन एक बार भोजन करता है, उसे सोम याग का फल मिलता है । वह साम-कन्याओं के महलों में नित्य निवास करता है, उसके अंगों मे सौम्य गंध युक्त अनुलेप लगाया जाता है। वह अपनी इच्छा के अनुसार जहां चाहता है, घूमता है । वह विमान पर विराजमान होता है तथा देखने में परम सुंदरी तथा मधुर भाषिनी दिव्य नारियां उसकी पूजा करती तथा उसे काम भोग का सेवन कराती हैं । वह पुरूष सौ पद्म वर्षों के समान दस महाकल्प तथा चार चर्तुयुगी तक अपने पुण्य का फल भोगता है । जो मनुष्य बारह महीनों तक प्रति दिन अग्निहोत्र करता हुआ सोलह दिन तक उपवास करके सत्रहवें दिन केवल हविष्यान्न भोजन करता है, वह वरूण, इन्द्र, रूद्र, मरूत, शुक्राचार्यजी तथा ब्रह्माजी के लोक में जाता है तथा उन लोकों में देवताओं की कन्याऐं आसन देकर उनकी पूजा करती हैं । वह पुरूष भूलोक, भुवर्लोक तथा विश्‍वरूपधारी देवर्षि का वहां दर्श करता है और देवाधिदेव की कुमारियां उसका मनोरंजन करती हैं। उनकी संख्या बत्तीस है। वे मनोहर रूप धारिणी, मधुर भाषिनी तथा दिव्य अलंकरों से अलंकृत होती हैं । प्रभो। जब तक आकाश में चन्द्रमा और सूर्य विचरते हैं, तब तक वह धीर पुरूष सुधा एंव अमृत रस का भोजन करता हुआ ब्रह्मलोक में विहार करता है । जो लगातार बारह महीनों तक प्रति अठारहवें दिन एक बार भोजन करता है, वह भूआदि सातों लोकों का दर्शन करता है । उसके पीछे आनन्दपूर्वक जयघोष करते हुए बहुत से तेजस्वी एवं सजे-सजाये रथ चलते हैं। उन रथों पर देवकन्याऐं बैठी होती हैं । उसके सामने व्याघ्र और सिंहों से जुता हुआ तथा मेघ के समान गंभीर गर्जना करने वाला दिव्य एवं उत्तम विमान प्रस्तुत होता है, जिस पर वह अत्यंत सुखपूर्वक आरोहण करता है । उस दिव्य लोक में वह एक हजार कल्पों तक दिव्य कन्याओं के साथ आनन्द भोगता और अमृत समान उत्तम सुधारस का पान करता है । जो लगातर बारह महीनों तक उन्नीसवें दिन एक बार भोजन करता है, वह भी भूआदि सातों लोकों का दर्शन करता है । उसे अप्सराओं द्वारा सेवित उत्तम स्थान-गन्धर्वों के गीतों से गूंजता हुआ सूर्य के समान तेजस्वी विमान प्राप्त होता है ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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