महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 107 श्लोक 46-67

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सप्ताधिकशततम (107) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्ताधिकशततम अध्याय: श्लोक 46-67 का हिन्दी अनुवाद

वह नीले और लाल कमल के समान अनके रंगों से सुशोभित, मण्डलाकार घूमने वाले, भंवर के समान गहन चक्कर लगाने वाला, सागर की लहरों के समान ऊपर नीचे होने वाला, विचित्र मणिमालाओ से अलंकृत और शंख ध्वनि से परिपूर्ण सर्वोत्म विमान प्राप्त करता है । उसमें स्फटिक और वज्रसारमणि के खंभे लगे होते है। उस पर सुंदर ढंग से बनी हुई वेदी शोभा पाती है तथा वहां हंस और सारस पक्षी करलव करते हरते हैं। ऐसे विशाल विमान पर चढ़ता और स्वच्छंद घूमता है । जो बारह महीनों तक प्रतिदिन अग्निहोत्र करता हुआ प्रति ग्यारहवे दिन एक बार हविष्यान्‍न ग्रहण करता है, मनवाणी से कभी परस्त्री की अभिलाषा नहीं करता है और माता-पिता के लिये भी कभी झूठ नहीं बोलता है, विमान में विराजमान परम शक्तिमान महादेवजी के समीप जाता और हजार अश्‍वमेध यज्ञों का सर्वोत्तम फल पाता है । वह अपने पास ब्रह्माजी का भेजा हुआ विमान स्वतः उपस्थित देखता है। सुवर्ण के समान रंग वाली रूपवति कुमारियां उसे उस विमान द्वारा द्यूलोक में दिव्य मनोहर रूद्रलोक में ले जाती है । वहां वह प्रलयकालीन अग्नि के समान तेजस्वी शरीर धारण करके असंख्या वर्षों तक एक लाख एक हजार करोड़ वर्षों तक निवास करता हुआ प्रतिदिन देवदानव-सम्मानित भगवान रूद्र को प्रणाम करता है। वे भगवान उसे नित्यप्रति दर्शन देते रहते है । जो बारह महीनों तक प्रति बारहवें दिन केवल हविष्यान्न ग्रहण करता है, एसे सर्वमेध यज्ञ का फल मिलता है । उसके लिये बारह सूर्यों के समान तेजस्वी विमान प्रस्तुत किया जाता है। बहुमूल्य मणि, मुक्ता और मूंगे उस विमान की शोभा बढ़ाते हैं। हंस श्रेणी से परिवेष्टित और नाग वीथी से परिव्याप्त वह विमान करलव करते हुए मोरों और चक्रवाकों से सुशोभित तथा ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित है। उसके भीतर बड़ी-बड़ी अट्टालिकाऐं बनी हुई हैं। राजन। वह नित्य निवास स्थान अनेक नर-नारियों भरा हुआ होता है। यह बात महाभाग धर्मज्ञ ऋषि अंगिरा ने कही थी । जो बारह महीनों तक सदा तेरहवें दिन हविष्यान्न भोजन करता है उसे देवसत्र का फल प्राप्त होता है। उस मनुष्य को रक्तपद्योदय नामक विमान उपलब्ध होता है, जो सुवर्ण से जटित तथा रत्न समूह से विभूषित है। उसमें देवकन्याऐं भरी रहती हैं, दिव्य आभूषणों से विभूषित उस विमान की बड़ी शोभा होती है। उससे पवित्र सुगंध प्रकट होती रहती है तथा वह दिव्य विमान वायव्यास्त्र से शोभायमान होता है । वह व्रतधारी पुरूष दो शंख, दो पाताका (महापद्य), एक कल्प एवं एक चर्तुयुग तथा दस करोड़ एवं चार पद्य वर्षों तक ब्रह्मलोक में निवास करता है । वहां देवकन्याऐं गीत और वाद्यों के घोष तथा भेरी और पणव की मधुर ध्वनि से उस पुरूष को आनन्द प्रदान करती हुई सदा उसका पूजन करती हैं । जो बारह महीनों तक प्रति चौदहवें दिन हविष्यान्न भोजन करता है, वह महामेद्य यज्ञ का फल पाता है। जिनके यौवन तथा रूप का वर्णन नहीं हो सकता, ऐसी देवकन्याऐं तपाये हुए शुद्ध स्वर्ण के अंगद (बाजूबन्द) और अनान्य अलंकार धारण करके विमानों द्वारा उस पुरूष की सेवा में उपस्थित होती हैं । वह सो जाने पर कलहंसों के करलवों, नुपुरों की मधुर झनकारों तथा कांचि की मनोहर ध्वनियों द्वारा जगाया जाता है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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