महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-47
पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
शुभाशुभ मानस आदि तीन प्रकार के कर्मो कास्वरुप और उनके फल का एवं मद्द्सेवन के दोषों कावर्णन,आहार-शुद्धि,मांसभक्षण से दोष,मांस न खानेसे लाभ,जीवदया के महत्व,गुरुपूजा कीविधि,उपवास-विधि,ब्र्हमचर्यपालन,तीर्थचर्चा,सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य,अन्न,सुवर्ण, गौभुमि, कन्या और विद्यादान का माहात्म्य , पुण्यतम देशकाल, दिये हुये दान और धर्म की निष्फलता, विविध प्रकार के दान, लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताऔं की पूजा का निरुपण
भविष्य में जीवन-निर्वाह के लिये पूर्ण व्यवस्था करके उन दोनों दम्पत्ति को उत्तम गृह में ठहरावे। इस प्रकार वधू-वेष में कन्या का दान करके उस दान की महिमा से दाता मृत्यु के पश्चात् स्वर्गलोक में सुख और सम्मान के साथ रहता है। फिर जन्म लेने पर उसे सौभाग्य प्राप्त होता है तथा वह अपने कुल को बढ़ाता है। देवि! सुपात्र शिष्य को विद्यादान देने वाला मनुष्य मृत्यु के पश्चात् वृद्धि, बुद्धि, धृति और स्मृति प्राप्त करता है। जो सुयोग्य शिष्य को विद्या दान करता है, उसे शास्त्रोक्त दान का अक्षय फल प्राप्त होता है। सुभानने! निर्धन छात्रों को धन की सहायता देकर विद्या प्राप्त कराना भी स्वयं किये हुए विद्यादान के समान है, ऐसा समझो। मानिनि! देवि! इस प्रकार मैंने तुम्हारी प्रसन्नता के लिये ये बडे़-बड़े दान बताये हैं। अब और क्या सुनना चाहती हो? उमा ने पूछा- भगवन्! देवदेवेश्वर! तिल का दान कैसे करना चाहिये? और करने का फल क्या होता है? यह मुझे बताइये। श्रीमहेश्वर ने कहा- तुम एकाग्रचित्त होकर मुझसे तिलकल्प की विधि सुनो। मनुष्य धनी हों या निर्धन, उन्हें विशेषरूप से तिलों का दान करना चाहिये, क्योंकि तिल पवित्र, पापनाशक और पुण्यमय माने गये हैं। अपनी शक्ति के अनुसार न्यायपूर्वक शुद्ध तिलों का संग्रह करके उनकी पर्वताकार राशि बनावे। वह राशि छोटी हो या बड़ी उसे नाना प्रकार के द्रव्यों तथा रत्नों से युक्त करे। फिर यथाशक्ति सोना, चाँदी, मणि, मोती और मूँगों से अलंकृत करके पताका, वेदी, भूषण, वस्त्र, शय्या और आसन से सुशोभित करे। प्रायः आश्विन मास में विशेषतः पूर्णिमा तिथि को बहुत से सुयोग्य ब्राह्मणों को विधिवत् भोजन कराकर स्वयं उपवास करके शौचाचार-सम्पन्न हो उन ब्राह्मणों की परिक्रमा करके दक्षिणासहित उस तिल राशि का दान करे। कल्याणकामी पुरूष को चाहिये कि वह एक ही पुरूष को या अनेक व्यक्तियों को दान दे। देवि! उनके दान का फल अग्निष्टोम यज्ञ के समान होता है। अथवा पृथ्वी पर केवल तिलों से ही गौ की आकृति बनाकर गोदान के फल की इच्छा रखने वाला पुरूष रत्न और वस्त्रसहित उस तिल-धेनु का सुयोग्य ब्राह्मण को दान करे। इससे दाता को गोदान करने का फल मिलता है। जो राजा सुवर्ण और चम्पा से युक्त तथा तिल से भरे हुए शरावों (पुरवों) का ब्राह्मण को दान करता है, वह पुण्य-फल का भागी होता है। देवि! अपना हित चाहने वाले मनुष्य को इसी प्रकार तिलमयी धेनु का दान करना चाहिये। अब पुनः एकाग्रचित्त होकर नाना प्रकार के दानों का फल सुनो। अन्नदान करने से मनुष्य को बल, आयु और आरोग्य की प्राप्ति होती है। जलदान करने वाला पुरूष सौभाग्य तथा रस का ज्ञान प्राप्त करता है। वस्त्रदान करने से मनुष्य शारीरिक शोभा और आभूषण लाभ करता है। दीपदान करने वाले की बुद्धि निर्मल होती है तथा उसे द्युति एवं शोभा की प्राप्ति होती है। छत्रदान करने वाला पुरूष किसी भी जन्म में राजवंश से अलग नहीं होता। दासी और दासों का दान करने से मनुष्य कर्मों का अन्त कर देता है और मृत्यु के पश्चात् उत्तम गुणों से युक्त भाँति-भाँति के दासों और दासियों को प्राप्त करता है।। जो मनुष्य सुयोग्य ब्राह्मण को रथ आदि यानों और वाहनों का दान करता है, वह पैरसम्बन्धी रोगों और क्लेशों से मुक्त हो जाता है। उसकी सवारी में वायु के समान वेगशाली घोड़े मिलते हैं। वह विचित्र एवं रमणीय यान और वाहन पाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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