महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-46

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पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-46 का हिन्दी अनुवाद

शुभाशुभ मानस आदि तीन प्रकार के कर्मो कास्वरुप और उनके फल का एवं मद्द्सेवन के दोषों कावर्णन,आहार-शुद्धि,मांसभक्षण से दोष,मांस न खानेसे लाभ,जीवदया के महत्व,गुरुपूजा कीविधि,उपवास-विधि,ब्र्हमचर्यपालन,तीर्थचर्चा,सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य,अन्न,सुवर्ण, गौभुमि, कन्या और विद्यादान का माहात्म्य , पुण्यतम देशकाल, दिये हुये दान और धर्म की निष्फलता, विविध प्रकार के दान, लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताऔं की पूजा का निरुपण

जहाँ सुख भोगने की सुविधा हो, जो अनिन्दनीय स्थान हो, वहाँ वास्तुपूजनपूर्वक गृह बनाकर दान लेने वाले को वस्त्र, पुष्पमाला तथा चन्दन से अलंकृत करके सेवक और परिवारसहित उसे यथेष्ट भोजन करावे। तत्पश्चात् यथासमय तीन बार हाथ में जल लेकर ‘दान ग्रहण कीजिये’ ऐसा कहकर उसे उस भूमि का दान एवं दक्षिणा दे। इस प्रकार ईष्र्यारहित पुरूषों द्वारा श्रद्धापूर्वक भूदान दिये जाने पर जब तक वह भूमि रहती है, तब तक दाता उसके दानजनित फल का उपभोग करते हैं। भूमिदान देने वाला पुरूष स्वर्गलोक में जाकर सदा ही सुख भोगता है, क्योंकि यह अचल एवं अक्षय भूमि सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति करती है। जीविका के लिये कष्ट पाने वाला पुरूष जो कोई भी पाप करता है, गाय के कान बराबर भूमि का दान करने से भी मुक्त हो जाता है। महाभागे! भूमिदान में सुवर्ण, रजत, वस्त्र, मणि, मोती तथा रत्न-इन सबका दान प्रतिष्ठित है। स्वामी के कल्याण-साधन में तत्पर हो युद्ध में मारे जाकर अपने शरीर का परित्याग करने वाले शूरवीर योद्धा उत्तम सिद्धि पाकर ब्रह्मलोक की यात्रा करते हैं, परंतु वे भी भूमिदान करने वाले को लाँघ नहीं पाते हैं। जहाँ सुन्दर कूआँ और रहने के लिये घर बना हो, जो हल से जोती गयी हो और जिसमें बीजसहित फल लगे हों, ऐसी भूमि का दान करना चाहिये। वह सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाली होती है। जो उपजी हुई खेती से युक्त भूमि का ब्राह्मणों के लिये दान करता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो इन्द्रलोक में जाता है। जैसे माता दूध पिलाकर अपने पुत्र का पालन-पोषण करती है, उसी प्रकार भूमि सम्पूर्ण मनोवांछित फल देकर दाता को अभ्युदयशील बनाती है। जो लोग उत्तम व्रत का पालन करने वाले, अग्निहोत्री एवं सदाचारी ब्राह्मण को अपनी भूमि देते हैं, वे यमलोक में कभी नहीं जाते हैं। जैसे शुक्लपक्ष में चन्द्रमा की प्रतिदिन वृद्धि होती देखी जाती है, उसी प्रकार किये हुए भूमिदान का महत्व प्रत्येक नयी फसल पैदा होने पर बढ़ता जाता है। जैसे पृथ्वी पर बिखेरे हुए बीज अंकुरित हो जाते हैं, उसी प्रकार भूमिदान के गुणों से प्राप्त हुए सम्पूर्ण मनोवांछित भोग अंकुरित होते और बढ़ते हैं। जो भूमि का दान करता है, उसे पितृलोकनिवासी पितर और स्वर्गवासी देवता अभीष्ट भोगों द्वारा तृप्त करते हैं। भूमिदान करके मनुष्य परलोक में दीर्घायु, सुन्दर शरीर और बढ़ी-चढ़ी उत्तम सम्पत्ति पाता है। यह सब मैंने भूमिदान का फल बताया है। श्रद्धालु पुरूषों को प्रतिदिन यह सनातन दानमाहात्म्य सुनना चाहिये। अब मैं विधिपूर्वक कन्यादान का माहात्म्य बताऊँगा। महादेवि! दूसरों की और अपनी भी कन्या का दान करना चाहिये। जो शुद्ध व्रत एवं आचारवाली, कुलीन एवं सुन्दर रूपवाली कन्या का किसी सुपात्र पुरूष को दान करना चाहता है, उसे इस बात पर भी ध्यान रखना चाहिये कि वह सुपात्र व्यक्ति उस कन्या को बहुत चाहता है या नहीं (वह पुरूष उसे चाहता हो तभी उसके साथ उस कन्या का विवाह करना चाहिये)। पहले बन्धुओं के साथ सलाह करके कन्या के विवाह का निश्चय करे, तत्पश्चात् उसे वस्त्राभूषणों से सुसज्जित करे। फिर उसे लिये मण्डप बनाकर दास-दासी, अन्यान्य सामग्री, घर के आवश्यक उपकरण, पशु और धान्य से सम्पन्न एवं वस्त्राभूषणों से विभूषित हुई उस कन्या का उसे चाहने वाले योग्य वर को अग्निदेव की साक्षिता में यथोचित रीति से विवाहपूर्वक दान करे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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