महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 217 श्लोक 15-29
सप्तदशाधिकद्विशततम (217) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
आन्तिरक तप चैतन्यमय प्रकाश से युक्त है । उसके द्वारा तीनों लोक व्याप्त हैं। आकाश में सूर्य और चन्द्रमा भी तप से ही प्रकाशित हो रहे हैं । लोक में तप शब्द विख्यात है । उस तप का फल है, ज्ञानस्वरूप प्रकाश । रजोगुण और तमोगुण का नाश करनेवाला जो निष्काम कर्म हैं, वही तपस्या का स्वरूपबोधक लक्षण है। ब्रह्राचर्य और अहिंसा को शारीरिक तप कहते हैं । मन और वाणी का भलीभाँति किया हुआ संयम मानसिक तप कहलाता है। वैदिक विधि को जानने और उनके अनुसार चलनेवाले द्विजातियों से ही अन्न ग्रहण करना उत्तम माना गया है । ऐसे अन्न का नियमपूर्वक भोजन करने से रजोगुण से उत्पन्न होनेवाला पाप शान्त हो जाता है। उससे साधक की इन्द्रियाँ भी विषयों की ओर से विरक्त हो जाती हैं । इसलिये उतना ही अन्न ग्रहण करना चाहिये, जितना जीवन – रक्षा के लिये वांछनीय हो। इस प्रकार योगयुक्त मन के द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसे जीवन के अन्त समयतक पूरी शक्ति लगाकर धीरे-धीरे प्राप्त ही कर लेना चाहिये । इस कार्यमें धैर्य नहीं छोड़ना चाहिये। योगपरायण योगी की बुद्धि कार्यो द्वारा व्याहत नहीं होती । वह वैराग्यवश अपने स्वभाव में स्थित रहता है, रजोगुण से रहित होता है तथा देहधारी होकर भी शब्द कीभाँति अबाध गति से सर्वत्र विचरण करता है। देह त्यागपर्यन्त प्रमाद न होनेपर योगी देहावसान के पश्चात् मोक्ष प्राप्त कर लेता है और जो बन्धन के कारणभूत अज्ञान से युक्त होते हैं, उन प्राणियों के सदा जन्म और मरण होते रहते हैं। जिनको ब्रह्राज्ञान प्राप्त हो गया है, उनका प्रारब्ध अनुसरण नहीं करता है अर्थात् वे प्रारब्ध के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं । परंतु जो इसके विपरीत स्थिति में हैं अर्थात् जिनका अज्ञान दूर नहीं हुआ है, वे प्रारब्धवश जन्म मृत्यु के चक्कर में पड़े रहते हैं। कुछ योगीजन बुद्धि के द्वारा अपने चित्त को विषयों की ओर से हटाकर आसन की दृढ़ता से स्थिरतापूर्वक देह को धारण करते हुए इन्द्रिय-गोलकों से सम्बन्ध त्यागकर सूक्ष्म बुद्धि होने के कारण ब्रह्रा की उपासना करते हैं[१]। कोई-कोई शास्त्र में बताये हुए क्रम से (उतरोत्तर उत्कृष्ट तत्व का ज्ञान प्राप्त करते हुए पराकाष्ठातक पहॅुचकर वहीं) बुद्धि के द्वारा ब्रह्रा का अनुभव करते हैं ।जिसने योग के द्वारा अपनी बुद्धि को शुद्ध कर लिया है, ऐसा कोई-कोई योगी ही देहस्थितिपर्यन्त आश्रयरहित – अपनी ही महिमा में प्रतिष्ठित ब्रह्रा में स्थित रहता है। इसी तरह कोई तो योगधारणा के द्वारा सगुण ब्रह्रा की उपासना करते हैं जो विद्युत के समान ज्योतिर्मय और अविनाशी कहा गया है। कुछ लोग तपस्या से अपने पापों को दग्ध करके अन्तकाल में ब्रह्रा की प्राप्ति करते हैं । इन सभी महात्माओं को उत्तम गति की प्राप्ति होती है। शास्त्रीय दृष्टि से उन महात्माओं की सूक्ष्म विशेषता को देखे । देहत्यागपर्यन्त नित्यमुक्त, अपरिग्रह, आकाश से भी विलक्षण उस परब्रह्रा का ज्ञान प्राप्त करे, जिसमें योगधारणा द्वारा मन को स्थापित किया जाता है। जिनका मन ज्ञान के साधन में लगा हुआ है, वे मर्त्यलोक के बन्धन से छूट जाते हैं और रजोगुण से रहित एवं ब्रह्रास्वरूप हो परम गति को प्राप्त कर लेते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पुराणान्तर में बताया गया है कि इन्द्रियों का आत्मभाव से चिन्तन करनेवाले योगी दस मन्वन्तरों तक ब्रह्रालोक में निवास करते हैं । यथा-‘दशमन्वन्तराणीह तिष्ठन्तीन्द्रियचिन्तका:’