महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 263 श्लोक 1-12
विंशत्यधिकद्विशततम (220) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
श्वेतकेतु ने कहा – मनुष्य त्वचा द्वारा आकाश में स्थित वायु का बारंबार स्पर्श करता है, नासिका द्वारा आकाशवर्ती गन्ध को बारंबार सॅूघता है और नेत्र द्वारा आकाश स्थित ज्योंति का दर्शन करता है। इसके सिवा अन्धकार, किरणसमूह, मेघों की घटा, वर्षा तथा तारागण का भी बारंबार दर्शन होता है; परंतु आकाश दृष्टिगोचर नहीं होता। सत्स्वरूप परमात्मा उस आकाश का भी आकाश है, अर्थात् उसे भी अवकाश देनेवाला महाकाश है; यह निश्चित है, उन्हीं के लिये और उन्हीं के द्वारा इस सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि हुई है । वे ही सत्य तथा सर्वव्यापी हैं। भगवान् के जो गुण सम्बन्धी नाम हैं, वे परमात्मा में औपचारिक हैं । नेत्र, मन तथा अन्य किसी इन्द्रिय के द्वारा भी उस सर्वव्यापी परमात्मा का ग्रहण नहीं हो सकता। वाणी द्वारा भी उनका वर्णन नहीं किया जा सकता । केवल सूक्ष्म बुद्धि द्वारा उनका चिन्तन एवं साक्षात्कार किया जा सकता है। यह सारा प्रपंच (समष्टि एवं व्यष्टि जगत्) उन्हीं परमात्मा में प्रतिष्ठित है । ठीक उसी तरह, जैसे बड़ा और छोटा घड़ा पृथ्वी पर स्थितहोत हैं। वह परमात्मा न स्त्री है, न पुरूष है और न नपुंसक ही है, केवल ज्ञानस्वरूप है। उसी के आधारपर यह सम्पूर्ण जगत् प्रतिष्ठित है। जैसेएक ही जल में मृत्तिका विशेष एवं बीज आदि द्रव्यविशेष के संयोग से रसभेद उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार प्रकृति और आत्मा के संयोगसेगुण कर्म के अनुसार अनेक प्रकार की सृष्टि प्रकट होती है। जैसे प्यासा मनुष्य पानी पीकर तृप्ति लाभ करता है, उसी प्रकार साधक ब्रह्राबोधक वाक्य को स्मरण करके सदा तृप्ति एवं सम्पूर्ण ज्ञान से उसका सुख उत्तोतर अभ्युदय को प्राप्त होता है। सुवर्चला बोली – निष्पाप मुने ! इस शब्द से क्या सिद्ध होनेवाला है ? मेरी तो ऐसी धारणा हैं कि शब्द से कुछ भी होन-जानेवाला नहीं है । परंतु पौराणिक विद्वान् ऐसा मानते है कि परमात्मा अचिन्त्य एवं वेदगम्य हैं । जैसे लोक में बहुत से शब्द निरर्थक होते हैं, उसी प्रकार वैदिक शब्द भी हो सकते है । मेरी बुद्धि में तो यही बात आती है; अत: आप इस विषय में यथोचित विचार करके मुझे यथार्थ बात बताने की कृपा करें । त्रिषष्टयधिकद्विशततमोअध्याय: जाजलिने कहा – वणिक् महोदय ! तुम हाथ में तराजू लेकर सौदा तौलते हुए जिस धर्म का उपदेश करते हो, उससे तो स्वर्ग का दरवाजा ही बंद किये देते हो और प्राणियों की जीविकावृत्ति में भी रूकावट पैदा करते हो। वैश्यपुत्र ! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि खेती से ही अन्न पैदा होता है, जिससे तुम भी जी रहे हो। अन्न और पशुओं से ही मनुष्य का जीवन-निर्वाह होता है। उन्हीं से यज्ञकार्य सम्पन्न होता है। तुम तो नास्तिकताकी भी बातें करते हो। यदि पशुओंके कष्ट का ख्याल करके खेती आदि वृत्तियों का त्याग कर दिया जाय, तो इस संसार का जीवन ही समाप्त हो जायेगा। तुलाधार ने कहा- जाजले ! मैं तुम्हें हिंसातिरिक्त जीविका-वृत्ति बताऊँगा । ब्राह्मणदेव ! मैं नास्तिक नहीं हूँ और न यज्ञ की ही निन्दा करता हूँ; परंतु यज्ञ के यथार्थ स्वरूप को समझने वाला पुरूष अत्यन्त दुर्लभ है। विप्र ! ब्राह्मणों के लिये जिस यज्ञ का विधान है, उसको तो मैं नमस्कार करता हूँ और जो लोग उस यज्ञ को ठीक-ठीक जानते हैं, उनके चरणों में भी मस्तक झुकाता हूँ, किंतु खेद है, इस समय ब्राह्मणलोग अपने यज्ञ का परित्याग करके क्षत्रियोचित यज्ञों के अनुष्ठान में प्रवृत हो रहे हैं।
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