महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 263 श्लोक 13-26

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त्रिषष्‍टयधिकद्विशततम (263) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिषष्‍टयधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 13-26 अध्याय: का हिन्दी अनुवाद

वे यज्ञों में अपने लिये किसी फल की ओर दृष्टि नहीं रखते थे। जो मनुष्‍य यज्ञ से कोई फल मिलता है या नहीं, इस प्रकार का संदेह मन में लेकर किसी तरह यज्ञों में प्रवृत होते हैं, वे धन चाहने वाले लोभी, धूर्त और दुष्‍ट होते हैं। द्विजश्रेष्‍ठ ! जो मनुष्‍य प्रमाणभूत वेद को अपने अप्रामाणिक कुतर्क द्वारा अमंगलकारी सिद्ध करता है, उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है, उसका मन सदा यहां पापों में ही लगा रहता है और वह अपने अशुभ कर्म के कारण पापाचारियोंके लोकों (नरकों) में ही जाता है। जो करने योग्‍य कर्मों को अपना कर्तव्‍य समझता है और उसका पालन न होने पर भय मानता है, जिसकी दृष्टि में (ॠत्विक्, हविष्‍य, मन्‍त्र और अग्नि आदि) सब कुछ ब्रह्म ही है तथा जो किसी भी कर्तव्‍य को अपना नहीं मानता-कर्तापन का अभिमान नहीं रखता-वही सच्‍चा ब्राह्मण है। हमने सुना है कि यदि कर्म में किसी प्रकार की त्रुटि हो जाने के कारण वह गुणहीन हो जाय तो भी यदि वह निष्‍कामभाव से किया जा रहा है तो श्रेष्‍ठ ही है अर्थात वह कल्‍याणकारी ही होता है। निष्‍कामभावसे किये जाने वाले कर्म में यदि कुत्ते आदि अपवित्र पशुओं के द्वारा स्‍पर्श हो जाने से कोई बाधा भी आ जाय तथापि वह कर्म नष्‍ट नहीं होता, वह श्रेष्‍ठतम ही माना जाता है, अत: प्रत्‍येक कर्म में फल की भावना या कामना पर संयम-नियन्‍त्रण रखना आवश्‍यक है। प्राचीन काल के ब्राह्मण्‍ सत्‍यभाषण और इन्द्रिय-संयमरूप यज्ञ का अनुष्‍ठान करते थे। वे परम पुरूषार्थ (मोक्ष) के प्रति लोभ रखते थे, उन्‍हें लौकिक धन की प्‍यास नहीं रहती थी, वे उस ओर से सदा तृप्‍त रहते थे। वे सब लोग प्राप्‍त वस्‍तु का त्‍याग करने वाले और ईर्ष्‍या-द्वेष से रहित थे। वे क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (आत्‍मा) के तत्त्व को जानने वाले और आत्‍मज्ञ-परायण थे। उपनिषदों के अध्‍ययन में तत्‍पर रहते तथा स्‍वयं संतुष्‍ट होकर दूसरों को भी संतोष देते थे। ब्रह्म सर्वस्‍वरूप है, सम्‍पूर्ण देवता उसी के रूप हैं, वह ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण के भीतर विराजमान है। इसलिये जाजले ! इसके तृप्‍त होने पर सम्‍पूर्ण देवता तृप्‍त एवं संतुष्‍ट हो जाते हैं। जैसे सब प्रकार के रसों से तृप्‍त हुआ मनुष्‍य किसी भी रस का अभिनन्‍दन नहीं करता, उसी प्रकार जो ज्ञानानन्‍द से परितृप्‍त है, उसे अक्षय सुख देने वाली नित्‍य तृप्ति बनी रहती है। हममें से बहुत लोग ऐसे हैं, जिनका धर्म ही आधार है, जो धर्म में ही सुख मानते हैं तथा जिन्‍होंने सम्‍पूर्ण कर्तव्‍य-अकर्तव्‍य का निश्‍चय कर लिया है; परंतु हमलोगों का जो यथार्थरूप है, उसकी अपेक्षा बहुत महान् और व्‍यापक परमात्‍मा सर्वत्र सर्वात्‍मा रूप से विराजमान है-ऐसा ज्ञानी पुरूष देखता है। भवसागर से पार उतरने की इच्‍छावाले कोई-कोई ज्ञान-विज्ञान सम्‍पन्‍न महात्‍मा पुरूष ही अत्‍यन्‍त पवित्र और पुण्‍यात्‍माओं से सेवित पुण्‍यदायक ब्रह्मलोक को प्राप्‍त होते हैं, जहां जाकर वे न तो शोक करते हैं, न बहां से नीचे गिरते हैं और न मनमें किसी प्रकार की व्‍यथा ही अनुभव करते हैं। वे सात्त्विक महापुरूष उस ब्रह्मधाम को ही प्राप्‍त होते हैं, उन्‍हें स्‍वर्ग की इच्‍छा नहीं होती, वे यश और धन के लिये यज्ञ नहीं करते, सत्‍पुरूषों के मार्ग पर चलते और हिंसारहित यज्ञों का अनुष्‍ठान करते हैं। वनस्‍पति, अन्‍न और फल-मूल को ही वे हविष्‍य मानते हैं, धन की इच्‍छा रखने वाले लोभी ॠत्विज् इनका यज्ञ नहीं करते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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