महाभारत शल्य पर्व अध्याय 52 श्लोक 1-18

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द्विपन्चाशत्तम (52) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: द्विपन्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

वृद्ध कन्या का चरित्र, श्रृंगवान् के साथ उसका विवाह और स्वर्ग गमन तथा उस तीर्थ का माहात्म्य

जनमेजय ने पूछा-भगवन् ! पूर्वकाल में वह कुमारी तपस्या में क्यों संलग्न हुई ? उसने किसलिये तपस्या की और उसका कौन सा नियम था ? ब्रह्मन् ! मैंने आपके मुख से यह अत्यन्त उत्तम तथा परम दुष्कर तप की बात सुनी है। आप सारा वृत्तान्त यथार्थ रूप से बताइये; वह कन्या क्यों तपस्या में प्रवृत्त हुई थी ? वैशम्पायनजी ने कहा-राजन् ! प्राचीन काल में एक महान् शक्तिशाली और महायशस्वी कुणिर्गर्ग नामक ऋषि रहते थे। तपस्या करने वालों में श्रेष्ठ उन महर्षि ने बड़ा भारी तप करके अपने मन से एक सुन्दरी कन्या उत्पन्न की । नरेश्वर ! उसे देखकर महायशस्वी मुनि कुणिर्गर्ग बड़े प्रसन्न हुए और कुछ काल के पश्चात् अपना यह शरीर छोड़ कर स्वर्ग लोक में चले गये । तदनन्तर कमल के समान सुन्दर नेत्रों वाली वह कल्याणमयी सती साध्वी सुन्दरी कन्या पूर्वकाल में अपने लिये आश्रम बना कर बड़ी कठोर तपस्या तथा उपवास के साथ-साथ देवताओं और पितरों का पूजन करती हुई वहां रहने लगी । राजन् ! उग्र तपस्या करते हुए उसका बहुत समय व्यतीत हो गया। पिता ने अपने जीवनकाल में उसका किसी के साथ ब्याह कर देने का प्रयत्न किया; परंतु उस अनिन्द्य सुन्दरी ने विवाह की इच्छा नहीं की। उसे अपने योग्य कोई वर ही नहीं दिखायी देता था । तब वह उग्र तपस्या के द्वारा अपने शरीर को पीड़ा देकर निर्जन वन में पितरों तथा देवताओं के पूजन में तत्पर हो गयी । राजेन्द्र ! परिश्रम से थक जाने पर भी वह अपने आपको कृतार्थ मानती रही। धीरे-धीरे बुढ़ापा और तपस्या ने उसे दुर्बल बना दिया । जब वह स्वयं एक पग भी चलने में असमर्थ हो गयी, तब उसने परलोक में जाने का विचार किया । उसकी देहत्याग की इच्छा देख देवर्षि नारद ने उससे कहा-‘महान् व्रत का पालन करने वाली निष्पाप नारी ! तुम्हारा तो अभी विवाह संस्कार भी नहीं हुआ, तुम तो अभी कन्या हो। फिर तुम्हें पुण्यलोक कैसे प्राप्त हो सकते हैं ? तुम्हारे सम्बन्ध में ऐसी बात मैंने देवलोक में सुनी है। तुमने तपस्या तो बहुत बड़ी की है; परंतु पुण्यलोकों पर अधिकार नहीं प्राप्त किया है’। नारदजी की यह बात सुनकर वह ऋषियों की सभा में उपस्थित होकर बोली-‘साधुशिरोमणे ! आपमें से जो कोई मेरा पाणिग्रहण करेगा, उसे मैं अपनी तपस्या का आधा भाग दे दूंगी’ । उसके ऐसा कहने पर सबसे पहले गालव के पुत्र श्रृंगवान् ऋषि ने उसका पाणिग्रहण करने की इच्छा प्रकट की और सबसे पहले उसके सामने यह शर्त रक्खी-‘शोभने ! मैं एक शर्त के साथ आज तुम्हारा पाणिग्रहण करूंगा। विवाह के बाद तुम्हें एक रात मेरे साथ रहना होगा। यदि यह स्वीकार हो तो मैं तैयार हूं’ । तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसने मुनि के हाथ में अपना हाथ दे दिया। फिर गालव पुत्र ने शास्त्रोक्त रीति से विधिपूर्वक अग्नि में हवन करके उसका पाणिग्रहण और विवाह-संस्कार किया । राजन् ! रात्रि में वह दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित और दिव्य गन्धयुक्त अंगराग से अलंकृत परम सुन्दरी तरुणी हो गयी ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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