महाभारत शल्य पर्व अध्याय 56 श्लोक 1-22

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षट्पन्चाशत्तम (56) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: षट्पन्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद

दुर्योधन के लिये अपशकुन, भीमसेन का उत्साह तथा भीम और दुर्योधन में वाग्युद्ध के पश्चात् गदायुद्ध का आरम्भ

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! तदनन्तर भीमसेन और दुर्योधन में भयंकर वाग्युद्ध होने लगा। इस प्रसंग को सुनकर राजा धृतराष्ट्र बहुत दुखी हुए और संजय से इस प्रकार बोले-‘निष्पाप संजय ! जिसका परिणाम ऐसा दुःखह होता है, उस मानव-जन्म को धिक्कार है ! मेरा पुत्र एक दिन ग्यारह अक्षौहिणी सेनाओं का स्वामी था। उसने सब राजाओं पर हुक्म चलाया और सारी पृथ्वी का अकेले उपभोग किया; किंतु अन्त में उसकी यह दशा हुई कि गदा हाथ में लेकर उसे वेगपूर्वक पैदल ही युद्ध में जाना पड़ा । ‘जो मेरा पुत्र सम्पूर्ण जगत् का नाथ था, वही अनाथ की भांति गदा हाथ में लेकर युद्धस्थल में पेदल जा रहा था। इसे भाग्य के सिवा और क्या कहा जा सकता है ? ‘संजय ! हाय ! मेरे पुत्र ने बड़ा भारी दुःख उठाया।’ ऐसा कहकर राजा धृतराष्ट्र दुःख से पीडि़त हो चुप हो रहे । संजय ने कहा-महाराज ! उस समय रणभूमि में मेघ के समान गम्भीर गर्जना करने वाले पराक्रमी दुर्योधन ने हर्ष में भरकर जोर-जोर से शब्द करने वाले सांड़ की भांति सिंहनाद करके कुन्तीपुत्र भीमसेन को युद्ध के लिये ललकारा । महामनस्वी कुरुराज दुर्योधन जब भीमसेन का आहान करने लगा, उस समय नाना प्रकार के भयंकर अपशकुन प्रकट हुए । बिजली की गड़गड़ाहट के साथ प्रचण्ड वायु चलने लगी, सब ओर धूलि की वर्षा होने लगी, सम्पूर्ण दिशाएं अन्धकार से आच्छन्न हो गयी, आकाश से महान् शब्द तथा वज्र की सी गड़गड़ाहट के साथ रोंगटे खड़े कर देने वाली सैकड़ों भयंकर उल्काएं भूतल को विदीर्ण करती हुई गिरने लगी। प्रजानाथ ! अमावास्या के बिना ही राहु ने सूर्य को ग्रस लिया, वन और वृक्षों सहित सारी पृथ्वी जोर-जोर से कांपने लगी । नीचे धूल और कंकड़ की वर्षा करती हुई रूखी हवा चलने लगी। पर्वतों के शिखर टूट-टूट कर पृथ्वी पर गिरने लगे । नाना प्रकार की आकृति वाले मृग दसों दिशाओं में दौड़ लगाने लगे। अत्यन्त भयंकर एवं घोर रूप धारण करने वाली सियारिनें जिनका मुख अग्नि से प्रज्वलित हो रहा था, अमंगल सूचक बोली बोल रही थी । राजेन्द्र ! अत्यन्त भयंकर और रोमान्चकारी शब्द प्रकट हो रहे थे, दिशाएं मानो जल रही थी और मृग किसी भावी अमंगल की सूचना दे रहे थे । नरेश्वर ? कुओं के जल सब ओर से अपने आप बढ़ने लगे और बिना शरीर के ही जोर-जोर से गर्जनाएं सुनायी दे रही थी । इस प्रकार बहुत से अपशकुन देखकर भीमसेन अपने ज्येष्ठ भ्राता धर्मराज युधिष्ठिर से बोले। ‘भैया ! यह मन्दबुद्धि दुर्योधन रणभूमि में मुझे किसी प्रकार परास्त नहीं कर सकता। आज मैं अपने हृदय में चिरकाल से छिपाये हुए क्रोध को कौरवराज दुर्योधन पर उसी प्रकार छोडूंगा, जैसे अर्जुन ने खाण्ड वन में अग्नि को -सौ टुकड़े कर डालूंगा । ‘अब फिर कभी यह हस्तिनापुर में प्रवेश नहीं करेगा। भरतश्रेष्ठ ! इसने जो मेरी शय्या पर सांप छोड़ा था, भोजन में विष दिया था, प्रमाणकोटि के जल में मुझे गिराया था, लाक्षागृह में जलाने की चेष्टा की थी, भरी सभा में मेरा उपहास किया था, सर्वस्व हर लिया था तथा बारह वर्षो तक वनवास और एक वर्ष तक अज्ञातवास के लिये विवश किया था; इसके द्वारा प्राप्त हुए मैं इन सभी दुःखों का अन्त कर डालूंगा ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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