महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 1

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अष्टात्रिंश (38) अध्‍याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: 38 भाग 1 का हिन्दी अनुवाद

युधिष्ठिर का शिुशुपाल को समझाना और भीष्मजी का उसके आक्षेपों का उत्तर देना

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तब राजा युधिष्ठिर शिशुपाल के समीप दौड़े गये और उसे शान्तिपूर्वक समझाते हुए मधुर वाणी में बोले- ‘राजन्! तुमने जैसी बात कह डाली है, वह कदापि उचित नहीं है। किसी के प्रति इस प्रकार व्यर्थ कठोर बातें कहना महान् अधर्म है। ‘शान्तनुनन्दन भीष्मजी धर्म के तत्त्व को न जानते हों ऐसी बात नहीं है, अत: तुम इनका अनादर न करो। ‘देखो! ये सभी नरेश, जिनमें से कई तो तुम्हारी अपेक्षा बहुत बड़ी अवस्था के हैं, श्रीकृष्ण की अग्रपूजा को चुपचाप सहन कर रहे हैं, इसी प्रकार तुम्हें भी इस विषय में कुछ नहीं बोलना चाहिये। ‘चेदिराज! भगवान श्रीकृष्ण को यथार्थ रूप से हमारे पितामह भीष्मजी ही जानते हैं। कुरुनन्दन भीष्म को उनके तत्त्व का जैसा ज्ञान है, वैसा तुम्हें नहीं हैं। भीष्मजी ने कहा- धर्मराज! भगवान श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण जगत में सबसे चढ़कर हैं। वे ही परम पूजनीय हैं। जो उनकी अग्रपूजा स्वीकार नहीं करता है, उसकी अनुनयविनय नहीं करनी चाहिये। वह सान्त्वना देने या समझाने बुझाने के योग्य भी नहीं है। जो योद्धाओं में श्रेष्ठ क्षत्रिय जिसे युद्ध में जीतकर अपने वश में करके छोड़ देता है, वह उस पराजित क्षत्रिय के लिये गुरुतुल्य पूजय हो जाता है। राजाओं के इस समुदाय में एक भी भूपाल ऐसा नहीं दिखायी देता, जो युद्ध में देवकीनन्दन श्रीकृष्ण के तेज से परास्त न हो चुका हो। महाबाहु श्रीकृष्ण केवल हमारे लिये ही परम पूजनीय हों, ऐसी बात नहीं है, ये तीनों लोकों के पूजनीय हैं। श्रीकृष्ण के द्वारा संग्राम में अनेक क्षत्रियशिरोमणी परास्त हुए हैं। यह सम्पूर्ण जगत वृष्णिकुल भूषण भगवान श्रीकृष्ण में ही पूर्णरूप से प्रतिष्ठित हैं। इसीलिये हम दूसरे वृद्ध पुरुषों के होते हुए भी श्रीकृष्ण की ही पूजा करते हैं, दूसरों की नहीं। राजन! तुम्हें श्रीकृष्ण के प्रति वैसी बातें मुँह से नही निकालनी चाहिये थीं। उनके प्रति तुम्हें ऐसी बुद्धि नहीं रखनी चाहिये। मैंने बहत से ज्ञानवृद्ध महात्माओं का संग किया है। अपने यहाँ पधारे हुए उन संतों के मुख से अनन्तगुणशाली भगवान श्रीकृष्ण के असंख्य बहुसम्मत गुणों का वर्णन सुना है। जनमकाल से लेकर अब तक इन बुद्धिमान श्रीकृष्ण के जो जो चरित्र बहुधा बहुतेरे मनुष्यों द्वारा कहे गये हैं, उन सबको मैंने बार बार सुना है। चेदिराज! हम लोग किसी कामना से, अपना सम्बन्धी मानकर अथवा इन्होंने हमारा किसी प्रकार का उपकार किया है, इस दृष्टि से श्रीकृष्ण की पूजा नही कर रहे हैं। हमारी दृष्टि तो यह है कि ये इस भूमण्डल के सभी प्राणियों को सुख पहुँचाने वाले हैं और बड़े-बड़े संत महात्माओं ने इनकी पूजा की है। हम इनके यश, शौर्य ओर विजय को भली भाँति जान कर इनकी पूजा कर रहे हैं। यहाँ बैठे हुए लोगों में से कोई छोटा सा बालक भी ऐसा नहीं है, जिसके गुणों की हम लोगों ने पूर्णत: परीक्षा न की हो ।।१६।। श्रीकृष्ण के गुणों को ही दृष्टि में रखते हुए हमने वयोवृद्ध पुरुषों का उल्लंखन करके इन को ही परम पूजनीय माना है। ब्राह्मणों में वही पूजनीय समझा जाताहै, जो ज्ञान में बड़ा हो तथा क्षत्रियों में वही पूजा के योग्य है, जो बल में सबसे अधिक हो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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