महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 7

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अष्टात्रिंश (38) अध्‍याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 7 का हिन्दी अनुवाद

जल में पढ़ने वाली छाया (परछाई) ही पत्नी की भाँति उनकी सहायिका थी। इस प्रकार यज्ञमय वराहरूप धारण करके एकार्णव के जल में प्रविष्ठ हो सर्वशक्तिमान् सनातन भगवान विष्णु ने उस जल में गिरकर डूबी हुई पर्वत, वन और समुद्रों सहित अपनी महारानी भूदेवी का (दाढ़ या) सींग की सहयाता से मार्कण्डेय मुनि के देखते देखते उद्धार किया। सहस्त्रों मस्ताकों से सुशोभित होने वाले उन भगवान ने सींग (या दाढ़) के द्वारा सम्पूर्ण जगत के हित के लिये इस पृथ्वी का उद्धार करके उसे जगत का एक सुदृढ़ आश्रय बना दिया। इस प्रकार भूत, भविष्य और वर्तमानस्वरूप भगवान यज्ञ वराह ने समुद्र का जल हरण करने वाली भूदेवी का पूर्व काल में उद्धार किया था। उस समय उन देवाधिदेव विष्णु ने समस्त दानवों का संहार किया था यह वराह अवतार का वृततान्त बतलाया गया। अब नृसिंहावतार का वर्णन सुनो, जिसमें नरसिंह रूप धारण कर के भगवान ने हिरण्यकशिपु नामक दैत्य का वध किया था। राजन्! प्राचीन काल में देतवओं का शत्रु हिरण्यकशिपु समस्त दैत्यों का राजा था। वह बलावान् तो था ही, उसे अपने बल का घमंड भी बहुत था। वह तीनों लोकों के लिये कण्टक रूप हो रहा था। पराक्रमी हिरण्यकश्पिु धीर और बलवान् था। दैत्यकुल का आदिपुरुष वही था। राजन्! उसने वन में जाकर बड़ी भारी तपस्या की। साढ़े ग्यारह हजार वर्षों तक पूर्वोक्त तपस्या के हेतु भूत जप और उपवास में संलग्न रहने से वह ठूँठे काठ के समान अविचल और दृढ़तापूर्वक मौनव्रत का पालन करने वाला हो गया। निष्पाप नरेश! उसके इतन्दियसंयम, मनोनिग्रह, ब्रह्मचर्य, तपस्या तथा शौच संतोषादि नियमों के पालन से ब्रह्माजी के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई । भूपाल! तदनन्तर स्वयम्भू भगवान ब्रह्मा हंस जुते हुए सूर्य के समान तेजस्वी विमान द्वारा स्वयं वहाँ पधारे। उनके साथ आदित्य, वसु, साध्य, मरुद्रण, देवगतण, रुद्रगण, विश्वेदेव, यक्ष, राक्षस, किन्नर, दिशा, विदिशा, नदी, समुद्र, नक्षत्र, मुहूर्त, अन्यान्य आकाशचारी ग्रह, तपस्वी देवर्षि, सिद्ध, सप्तर्षि, पुण्यात्मा राजर्षि, गन्धर्व तथा अप्सराएँ भी थीं। ब्रह्माजी ने कहा- उत्तम व्रत का पालन करने वाले दैत्यराज! तुम मेरे भक्त हो। तुम्हारी इस तपस्या से मैं बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हारा भला हो। तुम कोई वर माँगों और मनोवच्छित वस्तु प्राप्त करो। हिरण्यकशिपु बोला- सुरश्रेष्ठ! मुझे देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, नाग, राक्षस, मनुष्य और पिशाच- कोई भी न मार सके। लोकपितामह! तपस्वी ऋषि-महर्षि कुपित होकर मुझे शाप भी न देें यही वर मैंने माँगा है। न शस्त्र से, न अस्त्र से, न पर्वत से न वृृक्ष से, न सूखे से, न गीले से और न दूसरे ही किसी आयुध से मेरा वध हो। पितामह! न आकाश में, न पृथ्वी पर, न रात में, न दिन में तथा न बाहर और भीतर ही मेरा वध हो सके। पशु या मृग, पक्षी अथवा सरीसृप (सर्प-बिच्छू) आदि से भी मेरी मृत्यु न हो। देवदेव! यदि आप वर दे रहे हैं तो मैं इन्हीं वरो को लेना चाहता हूँ। ब्रह्माजी ने कहा- तात! ये दिव्य और अद्भुत वर मैंने तुम्हें दे दिये। वत्स! इसमें संशय नहीं कि सम्पूर्ण कामनाओं सहित इन मनोवान्छित वरों को तुम अवश्य प्राप्त कर लोगे। भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! ऐसा कहकर भगवान ब्रह्मा आकाश मार्ग से चले गये और ब्रह्मलोक मेज जाकर ब्रह्मर्षिगणों से सेवित होकर अत्यन्त शोभा पाने लगे। तदनन्तर देवता, नाग, गन्धर्व ओर मुनि उस वरदान का समाचार सुनकर ब्रह्माजी की सभा में उपस्थित हुए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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