महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 31 श्लोक 1-13

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एकत्रिंश (31) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


राजा अम्बरीष की गायी हुई आध्यात्मिक स्वराज्य विषयक गाथा

ब्राह्मण ने कहा-देवि! इस संसार में सत्व, राज और तम- ये तीन मेरे शत्रु हैं। ये वृत्तियों के भेद से नौ प्रकार के माने गये हैं। हर्ष, प्रीति और आनन्द- ये तीन सात्त्विक गुण हैं, तृष्णा, क्रोध और द्वेषभाव- ये तीन राजस गुण हैं और थकावट, तन्द्रा तथा मोह- ये तीन तामस गुण हैं। शान्तचित्त, जितेन्द्रिय, आलस्यहीन और धैर्यवान् पुरुष शम-दम आदि बाण समूहों के द्वारा इन पूर्वोक्त गुणों का उच्छेद करके दूसरों को जीतने का उत्साह करते हैं। इस विषय में पूर्वकाल में बातों के जानकार लोग एक गाथा सुनाया करते हैं। पहले कभी शान्तिपरायण महाराज अम्बरीष ने इस गाथा का गान किया था। कहते हैं- जब दोषों का बल बढ़ा और अच्छे गुण दबने लगे, उस समय महायशस्वी महाराज अम्बरीष ने बलपूर्वक राज्य की बागडोर अपने हाथ में ली। उन्होंने अपने दोषों को दबाया और उत्तम गुणों का आदर किया। इससे उन्हें बहुत बड़ी सिद्धि प्राप्त हुई और उन्होंने यह गाथा गयी। ‘मैंने बहुत से दोषों पर विजय पायी और समस्त शत्रुओं का नाश कर डाला, किंतु एक सबसे बड़ा दोष रह गया है। यद्यपि वह नष्ट कर देने योग्य है तो भी अब तक मैं नाश न कर सका। ‘उसी को प्रेरणा से इस प्राणी को वैराग्य नहीं होता। तृष्णा के वश में पड़ा हुआ मनुष्य संसार में नीच कर्मों की ओर दौड़ता है, सचेत नहीं होता। ‘उससे प्रेरित होकर वह यहाँ नहीं करने योग्य काम भी कर डालता है। उस दोष का नाम है लोभ। उसे ज्ञान रूपी तलवार से काटरक मनुष्य सुखी होता है। ‘लोभ से तृष्णा और तृष्णा से चिन्ता पैदा होती है। लोभी मनुष्य पहले बहुत से राजस गुणों को पाता है और उनकी प्राप्ति हो जाने पर उसमें तामसिक गुण भी अधिक मात्रा में आ जाते हैं। ‘उन गुणों के द्वारा देह बन्धन में जकड़कर वह बारंबार जन्म लेता और तरह तहर के कर्म करता रहता है। फिर जीवन का अन्त समय आने पर उसके देह के तत्त्व विलग-विलग होकर बिखर जाते हैं और वह मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इसके बार फिर जन्म मृत्यु के बन्धन में पड़ता है। ‘इसलिये इस लोभ के स्वरूप को अच्छी तरह समझकर इसे धैयपूर्वक दबाने और आत्मराज्य पर अधिकार पाने की इच्‍छा करनी चाहिये। यही वास्तविक स्वराज्य है। यहाँ दूसरा कोई राज्य नहीं है। आत्मा का यथार्थ ज्ञान हो जाने पर वही राजा है’। इस प्रकार यशस्वी अम्बरीष ने आत्मराज्य को आगे रखकर एक मात्र प्रबल शत्रु लोभ का उच्छेद करते हुए उपर्युक्त गाथा का गान किया था।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में ब्राह्मणगीता विषयक इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।











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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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