श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 14-25
द्वितीय स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः (4)
जो बड़े ही भक्तवत्सल हैं और हठपूर्वक भक्तिहीन साधन करने वाले लोग जिनकी छाया भी नहीं छू सकते; जिनके समान भी किसी का ऐश्वर्य नहीं है; फिर उससे अधिक तो हो ही कैसे सकता है तथा ऐसे ऐश्वर्य से युक्त होकर जो निरन्तर ब्रम्हस्वरुप अपने धाम में विहार करते रहते हैं, उन भगवान् श्रीकृष्ण को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ । जिनका कीर्तन, स्मरण, दर्शन, वन्दन, श्रवण और पूजन जीवों के पापों को तत्काल नष्ट कर देता है, उन पुण्यकीर्ति भगवान् श्रीकृष्ण को बार-बार नमस्कार है । विवेकी पुरुष जिनके चरणकमलों की शरण लेकर अपने हृदय से इस लोक और परलोक की आसक्ति निकाल डालते हैं और बिना किसी परिश्रम के ही ब्रम्हपद को प्राप्त कर लेते हैं, उन मंगलमय कीर्ति वाले भगवान् श्रीकृष्ण को अनेक बार नमस्कार है । बड़े-बड़े तपस्वी, दानी, यशस्वी, सदाचारी और मन्त्रवेत्ता जब तक अपनी साधनाओं को तथा अपने-आपको उनके चरणों में समर्पित नहीं कर देते, तब तक उन्हें कल्याण की प्राप्ति नहीं होती। जिनके प्रति आत्म समर्पण की ऐसी महिमा है, उन कल्याणमयी कीर्ति वाले भगवान् को बार-बार नमस्कार है । किरात, हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, कंक, यवन और खस आदि नीच जातियाँ तथा दूसरे पापी जिनके शरणागत भक्तों की शरण ग्रहण करने से ही पवित्र हो जाते हैं, उन सर्वशक्तिमान् भगवान् को बार-बार नमस्कार है । वे ही भगवान् ज्ञानियों के आत्मा हैं, भक्तों के स्वमी हैं, कर्मकाण्डियों के लिये वेदमूर्ति हैं, धार्मिकों के लिये धर्ममूर्ति हैं और तपस्वियों के लिये तपःस्थल हैं। ब्रम्हा, शंकर आदि बड़े-बड़े देवता भी अपने शुद्ध ह्रदय से उनके स्वरुप का चिन्तन करते और आश्चर्यचकित होकर देखते रहते हैं। वे मुझ पर अपने अनुग्रह की—प्रसाद की वर्षा करें । जो समस्त सम्पत्तियों की स्वामिनी लक्ष्मीदेवी के पति हैं, समस्त यज्ञों के भोक्ता एवं फलदाता हैं, प्रजा के रक्षक हैं, सबके अन्तर्यामी और समस्त लोकों के पालनकर्ता हैं तथा पृथ्वी देवी के स्वामी हैं, जिन्होंने यदुवंश में प्रकट होकर अन्धक, वृष्णि एवं यदुवंश के लोगों की रक्षा की है तथा जो उन लोगों के एकमात्र आश्रय रहे हैं—वे भक्तवत्सल, संतजनों के सर्वस्व श्रीकृष्ण मुझ पर प्रसन्न हों । विद्वान् पुरुष जिनके चरणकमलों के चिन्तन रूप समाधि से शुद्ध हुई बुद्धि के द्वारा आत्म तत्व का साक्षात्कार करते हैं तथा उनके दर्शन के अनन्तर अपनी-अपनी मति और रूचि के अनुसार जिनके स्वरुप का वर्णन करते रहते हैं, वे प्रेम और मुक्ति के लुटाने वाले भगवान् श्रीकृष्ण मुझ पर प्रसन्न हों । जिन्होंने सृष्टि के समय ब्रम्हा के ह्रदय में पूर्वकल्प की स्मृति जागरित करने के लिये ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी को प्रेरित किया और वे अपने अंगों के सहित वेद के रुप में उनके मुख से प्रकट हुईं, वे ज्ञान के मूल कारण भगवान् मुझ पर कृपा करें, मेरे ह्रदय में प्रकट हों । भगवान् ही पंचमहाभूतों से इन शरीरों का निर्माण करके इनमें जीव रूप से शयन करते हैं और पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच प्राण और एक मन—इन सोलह कलाओं से युक्त होकर इनके द्वारा सोलह विषयों का भोग करते हैं। वे सर्वभूतमय भगवान् मेरी वाणी को अपने गुणों से अलंकृत कर दें । संत पुरुष जिनके मुखकमल से मकरन्द के समान झरती हुई ज्ञानमयी सुधा का पान करते रहते हैं उन वासुदेवावतर सर्वज्ञ भगवान् व्यास के चरणों में मेरा बार-बार नमस्कार है ।
परीक्षित्! वेद गर्भ स्वयम्भू ब्रम्हा ने नारद के प्रश्न करने पर यही बात कही थी, जिसका स्वयं भगवान् नारायण ने उन्हें उपदेश किया था (और वही मैं तुमसे कर रहा हूँ) ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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