महाभारत सभा पर्व अध्याय 45 श्लोक 40-62

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पन्चचत्वारिंश (45) अध्‍याय: सभा पर्व (शिशुपालवध पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: पन्चचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 40-62 का हिन्दी अनुवाद

तदनन्तर धर्मात्मा युधिष्ठिर जब अवभृथ स्थान कर चुकें, उस समय क्षत्रिय राजाओं का समुदाय उनके पास जाकर बोला- ‘धर्मज्ञ! आपका अभ्युदय हो रहा है, यह बड़े सौभाग्य की बात है। आपने सम्राट कापद प्राप्त कर लिया। अजमीढकुल नन्दन राजाधिराज! आपने इस कर्म द्वारा अजमीढवंशी क्षत्रियों के यश का विस्तार तो किया ही है, महान धर्म का भी सम्पादन किया है। नरव्याघ्र! आपने मारे लिये सब प्रकार के अभीष्ट पदार्थ सुलभ करके हमारा बड़ा सम्मान किया है। अब हम आपसे जाने की अनुमति लेना चाहते हैं। ‘हम अपने-अपने राष्ट्र को जायँगे, आप हमें आज्ञा दें।’ राजाओं का यह वचन सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने उन पूजनीय नरेशों का यथा योग्य सत्कार करके सब भाइयों से कहा- ‘ये सभी राजा प्रेम से ही हमारे यहाँ पधारे थे। ये परंतप भूपाल अब मुझ से पूछकर अपने राष्ट्रो को जाने के लिय उद्यत हैं। तुम लोगों का भला हो। तुम लोग अपने राज्य की सीमा तक आदरपूर्वक इन श्रेष्ठ नरपतियों को पहुँचा आओं’। भाई की बात मनाकर वे धर्मात्मा पाण्डव एक-एक करके यथायोग्य सभी राजाओं के साथ गये। प्रतापी धृष्टद्युम्र तुरंत ही राजा विराट के साथ गया । धनंजय ने महारथी महात्मा द्रुपद का अनुसरण किया। महाबली भीमसेन भीष्म और धृतराष्ट्र के सा गये। योद्धाओं में श्रेष्ठ सहदेव ने द्रोणाचार्य तथा उनके वीर पुत्र अश्वत्थामा को पहुँचाया। राजन्! सुबल और उनके पुत्र के साथ नकुल गये। द्रौपदी के पाँच पुत्रों तथा अभिमन्यु ने पर्वतीय महारथियों को अपने राज्य की सीमा तक पहुँचाया। इसी प्रकार अन्य क्षत्रिय शिरोमणियों ने दूसरे दूसरे खत्रिय राजाओं का अनुगमन किया। इसी तरह सभी ब्राह्मण भी अत्यन्त पूजित हो सहस्त्रों की संख्या में वहाँ से विदा हुए। राजाओं तथा ब्राह्मणों के चले जाने पर प्रतापी भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा- ‘कुरुनन्दन! मैं आपकी आज्ञा चाहता हूँ, अब मैं द्वारका पुरी को जाऊँगा। सौभाग्य से आपने सब यज्ञों में उत्तम राजसूय का सम्पादन कर लिया’। उनके ऐसा कहने पर धर्मराज युधिष्ठिर जनार्दन से बोल- ‘गोविन्द! आपकी ही कृपा से मैंने यह श्रेष्ठ यज्ञ सम्पन्न किया है। ‘तथा सरा क्षत्रियमण्डल भी आपके ही प्रसाद से मेरे अधीन हुआ और उत्तमोत्तम रत्नों की भेंट ले मेरे पास आया। ‘अनघ! आपको जाने के लिये मेरी वाणी कैसे कह सकती है? वीर! मैं आपके बिना कभी प्रसन्न नही रह सकूँगा। ‘परंतु आपका द्वारकापुरी जाना भी आवश्यक ही है।’ उनके ऐसा कहने पर महायशस्वी धर्मात्मा श्रीहरि युधिष्ठिर को साथ ले बुआ कुन्ति के पास गये और प्रसन्नतापूर्वक बोले- ‘बुआजी! तुम्हारे पुत्रों ने अब साम्राज्य प्राप्त कर लिया, उनका मनोरथ पूर्ण हो गया। वे सब के सब धन तथा रत्नों से सम्पन्न हैं। अब तुम इनके साथ प्रसन्नता पूर्वक रहो। यदि तुम्हारी आज्ञा हो तो मैं द्वारका जाना चाहता हूँ। कुन्ती की आज्ञा ले श्रीकृष्ण सुभद्रा और द्रोपदी से भी मिले और मीठे वचनों से उन दोनों को प्रसन्न किया। तत्पश्चात वे युधिष्ठिर के साथ अन्त:पुर से बाहर निकले। फिर स्थान ओर जप करके उन्होंन ब्राह्मणों से स्वस्ति वाचन कराया। इसके बाद महाबाहु दारुक मेघ के समान नीले रंग का सुन्दर रथ जोतकर उनकी सेवा में उपस्थित हुआ। गरुडध्वज से सुशोीिात उस सुन्दर रथ को उपस्थित देख महामना कमलनयन श्रीकृष्ण ने उसकी दक्षिणावर्त प्रदक्षिणा की और उस पर आरूढ़ हो वे द्वारकापुरी की ओर चल पड़े।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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