महाभारत वन पर्व अध्याय 115 श्लोक 19-35

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पंचदशाधिकशततम (115) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )

महाभारत: वन पर्व: पंचदशाधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद

इसी समय इस भूतल पर कान्यकुब्ज देश में एक महाबली महाराज शासन करते थे, जो गाधि के नाम से विख्यात थे । वे राजधानी छोड़कर वन में गये और वहीं रहने लगे । उनके वनवासकाल में ही एक कन्या उत्पन्न हुई, जो अप्सरा के समान सुन्दरी थी । भारत ! विवाह योग्य होने पर भृगुपुत्र ऋचीक मुनि ने उसका वरण किया । उस समय राजा गाधि ने कठोर व्रत का पालन करने वाले ब्रहृर्षि‍ ऋचीक से कहा- ‘दिजश्रेष्‍ठ ! हमारे कुल में पूर्वजों ने जो कुछ शुल्क लेने का नियम चला रक्खा है, उसका पालन करना हम लोगो के लिए भी उचित है । अत: आप यह जान ले इस कन्या के लिए एक सहस्त्र वेगशाली अश्व शुल्क रूप में देने पड़ेगें, जिनके शरीर का रंग सफेद और पीला मिला हुआ सा और कान एक ओर से काले रंग के हो ।। ‘भृगुनन्दन ! आप कोई निन्दनीय तो हैं नहीं, यह शुल्क चुका दीजिये, फिर आप जैसे महात्मा को मे अवश्य अपनी कन्या ब्याह दूंगा’ । ऋचीक बोले- राजन ! मैं आपको एक ओर से श्याम कर्णवाले पाण्डुरंग के वेगशाली अश्व एक हजार की संख्या में अर्पित करुंगा । आपकी पुत्री मेरी धर्मपत्नी बने । अकृतव्रण कहते है- राजन ! इस प्रकार शुल्क देने की प्रतिज्ञा करके ऋचीक मुनि ने वरुण के पास जाकर कहा- ‘ देव ! मुझे शुल्क में देने के लिए एक हजार ऐसे अश्व प्रदान करें, जिनके शरीर का रंग पाण्डुरंग और कान एक ओर से श्याम हो । साथ ही वे सभी अश्व तीव्रगामी होने चाहिये ।‘ उस समय वरुण ने उनकी इच्छा के अनुसार एक हजार श्यामकर्ण के घोड़े दे दिये । जहां वे श्यामकर्ण घोड़े प्रकट हुए थे, वह स्थान अश्वतीर्थ नाम से विख्यात हुआ । तत्पश्चात राजा गाधि ने शुल्करुप में एक हजार श्यामकर्ण घोड़े प्राप्त करके गंगातट पर कान्यकुब्ज नगर में ऋचीक मुनि को अपनी पुत्री सत्यवती ब्याह दी । उस समय देवता बराती बने थे । देवता उन सबको देखकर वहां से चले गये । विप्रवर ऋचीक ने धर्मपूर्वक सत्यवती को पत्नी के रुप में प्राप्त करके उस सुन्दरी के साथ अपनी इच्छा के अनुसार सुखपूर्वक रमण किया । राजन ! विवाह करने के पश्चात पत्नी सहित ऋचीक को देखने के लिए महर्षि‍ भृगु उनके आश्रम पर आये अपने श्रेष्‍ठ पुत्र को विवाहित देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए । उन दोनो पति पत्नि ने पवित्र आसन पर विराजमान देववृन्दवन्दित गुरु (पिता एवं श्वसुर) का पूजन किया और उनकी उपासना में संलग्न हो वे हाथ जोड़े खड़े रहे । भगवन भृगु ने अत्यन्त प्रसन्न होकर अपनी पुत्रवधु से कहा- ‘सौभाग्यवती बहु ! कोई वर मांगो, मै तुम्हारी इच्छा के अनुरुप वर प्रदान करुंगा’ । सत्यवती श्वसुर को अपने और अपनी माता के लिये पुत्र प्राप्ति को उद्देश्‍य रखकर प्रसन्न किया । तब भृगुजी ने उस पर कृपादृष्‍टि‍ की । भृगुजी बोले- बहू ! ऋतुकाल में स्नान करने के पश्चात तुम और तुम्हारी माता पुत्र प्राप्ति के उद्देश्य से दो भिन्न भिन्न वृक्षो का आलिगंन करो । तुम्हारी माता ता पीपल का और तुम गूलर का आलिगंन करना ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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