महाभारत वन पर्व अध्याय 115 श्लोक 36-45
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पंचदशाधिकशततम (115) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
भद्रे ! मैने विराट पुरुष परमात्मा का चिन्तन करके तुम्हारे और तुम्हारी माता के लिये यत्नपूर्वक दो चरु तैयार किये हैा तुम दोनों प्रयन्तपूर्वक अपने अपने चरु का भक्षण करना ऐसा कहकर भृगु अर्न्तर्धान हो गये । इधर सत्यवती और उसकी माता ने वृक्षो के आलिगंन और चरु-भक्षण में उलट फेर कर दिया । तदनन्तर बहुत दिन बीतने पर भगवान भृगु अपनी दिव्य ज्ञान शक्ति से सब बातें जानकर पुन: वहां आये ।।38।। उस समय महातेजस्वी भृगु अपनी पुत्रवधु सत्यवती से बोले- ‘भद्रे ! तुमने चरु-भक्षण और वृक्षो का आलिगंन किया है, उसमें उलट फेर करके तुम्हारी माता ने तुम्हें ठग लिया । सुभ्र ! इस भूल के कारण तुम्हारा पुत्र ब्राह्मण होकर भी क्षत्रियोचित आचार विचार वाला होगा । ‘और तुम्हारी माता का पुत्र क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मणोचित आचार विचार का पालन करने वाला होगा । वह पराक्रमी बालक साधु महात्माओं के मार्ग का अवलम्बन करेगा’ । तब सत्यवती ने बार बार प्रार्थना करके पुन: अपने श्वसुर को प्रसन्न किया और कहा- ‘ भगवन ! मेरा पुत्र ऐसा न हो । भले ही, पौत्र क्षत्रिय स्वभाव का हो जाय’ । पाण्डुनन्दन ! तब ‘एवमस्तु’ कहकर भृगुजी ने अपनी पुत्र वधु का अभिनन्दन किया । तत्पश्चात प्रसव का समय आने पर सत्यवती ने जमदग्नि नामक पुत्र को जन्म दिया । भार्गवनन्दन जमदग्रि तेज और ओज (बल) दोनों से सम्पन्न थे । युधिष्ठिर ! बड़े होने पर महातेजस्वी जमदग्रि मुनि वेदाध्ययन द्वारा अन्य बहुत से ऋषियों से आगे बढ़ गये । भरतश्रेष्ठ ! सूर्य के समान तेजस्वी जमदग्रि की बुद्धि में सम्पूर्ण धनुर्वेद और चारों प्रकार के अस्त्र स्वत: स्फुरित हो गये ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थ यात्रा पर्व में लोमश तीर्थयात्रा के प्रसंग में कार्तवीर्यपाख्यान विषयक एक सौ पन्द्रहवां अध्याय पूरा हुआ ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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