महाभारत वन पर्व अध्याय 209 श्लोक 1-13
नवाधिकद्विशततक (209) अध्याय: वन पर्व (समस्या पर्व )
महाभारत: वन पर्व: नवाधिकद्विशततक अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद
मार्कण्डेयजी कहते हैं- सम्पूर्ण धर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर । तदनन्तर धर्मव्याध ने विप्रवर कौशिक से पुन: कुशलता पूर्वक कहना आरम्भ किया । व्याध बोला-वृद्ध पुरुषों का कहना है कि ‘धर्म के विषय में केवल वेद ही प्रमाण है। यह ठीक है, तो भी धर्म की गति बड़ी सूक्ष्म है। उसके अनन्त भेद और अनेक शाखाएं हैं । (वेद के अनुसार सत्य धर्म और असत्य अधर्म हैं, परंतु) यदि किसी के प्राणों पर संकट आ जाय अथवा कन्या आदि का विवाह तै करना हो तो ऐसे अवसरों पर प्राण रक्षा आदि के लिये झूठ बोलने की आवश्यकता पड़ जाय, तो वहां असत्य ही सत्य का फल मिलता है। इसके विपरीत (यदि सत्य भाषण से किसी के प्राणों पर संकट आ गया, तो वहां) सत्य से ही असत्य का फल मिलता है। इसके विपरीत ( यदि सत्य भाषण से किसी के प्राणों पर संकट आ गया, तो वहां) सत्य से ही असत्य का फल प्राप्त होता है । जिससे परिणाम में प्राणियों का अतयन्त हित होता हो, वह वास्तव में सत्य है। इसके विपरीत जिससे किसी का अहित होता हो या दूसरों के प्राण जाते हों, वह देखने में सत्य होने पर भी वास्तव में असत्य एवं अधर्म है इस प्रकार विचार करके देखिये, धर्म की गति कितनी सूक्ष्म है ।सज्जन शिरोमणे। मनुष्य जो शुभ या अशुभ कार्य करता है, उसका फल उस अवश्य भोगना पड़ता है, इसमें संशय नहीं है । मुर्ख मानव संकट की दशा में पड़ने पर देवताओं को बहुत कोसता है, उनकी भरपेट निन्दा करता है; किंतु वह यह नहीं समझता कि यह अपने ही कर्मो का दोषा वह परिणाम है । द्विज श्रेष्ठ । मुर्ख, शठ और चंचल चित्तवाला मनुष्य तदा ही भ्रम वंश मुख में दु:ख और दु:ख में सुख बुद्धि कर लेता है। उस समय बुद्धि, उत्तम नीति ( शिक्षा ) तथा पुरुषार्थ भी उसकी रक्षा नहीं कर पाते । यदि पुरुषार्थ जनित कर्म का फल पराधीन न होता, तो जिसकी जो इच्छा होती, उसी को वह प्राप्त कर लेता । किंतु बड़े-बड़े संयमी, कार्यकुशल और बुद्धिमान् मनुष्य भी अपना काम करते-करते थक जाते हैं, तो भी वे इच्छानुसार फल की प्राप्ति से वंचित ही देखे जाते हैं । तथा दूसरा मनुष्य, जो निरन्तर जीवों की हिंसा के लिये उद्यत रहता है और सदा लोगों को ठगन में ही लगा रहता है, वह सुख पूर्वक जीवन बिताता देखा जाता है । कोई बिना उधोग किये चुप चाप बैठा रहता है और लक्ष्मी उसकी सेवा में उपस्थित हो जाती है और कोई सदा काम करते रहने पर भी अपने उचित वेतन से भी वचित रह जाता है (ऐसा देखा जाता है) । कितने ही दीन मनुष्य पुत्र की कामना रखकर देवताओ को पूजते और कठिन तपस्या करते हैं, तो भी उनके द्वारा गर्भ में स्थापित तथा दस मास तक माता के उदर में पालित होकर जो पुत्र पैदा होते है, वे कुलागड़ार निकल जाते हैं । और दूसरे बहुत से ऐसे भी हैं, जो अपने पिता के द्वारा जोड़कर रखे हुए धन-धान्य तथा भोग विलास के प्रचुर साधनों के साथ पैदा होते हैं और उनकी प्राप्ति भी उन्हीं मागड़लिक कृत्यों के अनुष्ठान से होती है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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