महाभारत वन पर्व अध्याय 208 श्लोक 16-29
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अष्टाधिकद्विशततम (208) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व )
‘विप्रवर । कितने ही मनुष्य पशुओं पर आक्रमण करके उन्हें मारते और खाते हैं। वृक्षों तथा ओषधियों (अन्न के पौधों) को काटते हैं । वृक्षों और फलों में भी बहुत से जीव रहते हैं । जल में भी नाना प्रकार के जीव रहते हैं । ब्रह्मन् । उनके विषय में आप क्या समझते हैं । ‘जीवों से ही जीवन-निर्वाह करने वाले जीवों द्वारा यह सारा जगत् व्याप्त है। मत्स्य मत्स्यों तक को अपना ग्रास बना लेते हैं । उनके विषय में आप क्या समझते हैं । ‘द्विज श्रेष्ठ । बहुधा जीव जीवों से ही जीवन धारण करते हैं और प्राणी स्वयं ही एक दूसरे को अपना आहार बना लेते हैं । उनके विषय में आप क्या समझते हैं । ‘मनुष्य चलते-फिरते समय धरती के बहुत-से जीव जन्तुओं को (असावधानी पूर्वक) पैरों से मार देते हैं । ब्रह्मन । उनके विषय में आप क्या समझते हैं । ‘ज्ञान विज्ञान सम्पन्न पुरुष भी (अनजान में) बैठते-सोते समय अनेक जीवों की हिंसा कर बैठते हैं । उनके विषय में आप क्या समझते हैं । ‘आकाश से लेकर पृथ्वी तक यह सारा जगत् जीवों से भरा हुआ है। कितने ही मनुष्य अनजान में भी जीवहिंसा करते हैं। इस विषय में आप क्या समझते हैं । ‘पूर्व काल के अभिमान शून्य श्रेष्ठ पुरुषों ने अहिंसा का उपदेश किया है (उसका तत्व समझना चाहिये; क्योंकि ) द्विज श्रेष्ठ । (स्थूल दृष्टि से देखा जाय तो) इस संसार में कौन जीवहिंसा नहीं करते हैं बहुत सोच-विचार कर मैं इस निश्चय पर पहुंचा हूं कि कोई भी (क्रियाशील मनुष्य ) अहिंसक नहीं है । ‘द्विज श्रेष्ठ । यतिलोग अहिंसा-धर्म के पालन मे तत्पर होते हैं, परंतु वे भी हिंसा कर ही डालते हैं (अर्थात् उनके द्वारा भी हिंसा हो ही जाती है) । अवशय ही यत्न पूर्वक चेष्टा करने से हिंसा की मात्रा बहुत कम हो सकती है । ‘ब्रह्मन् । उत्तम कुल में उत्पन्न, परम सदुण सम्पन्न और श्रेष्ठ माने जाने वाले पुरुष भी अत्यन्त भयानक कर्म करके लज्जा का अनुभव करते ही हैं । ‘मित्र दूसरे मित्रों को और शत्रु अपने शत्रुओं को, वे अच्छे कर्म में लगे हुए हों तो भी अच्छी दृष्टि से नहीं देखते । ‘बन्धु –बान्धव अपने समृद्धिशाली बान्धवों से भी प्रसन्न नहीं रहते । अपने को पण्डित- मानने वाले मूढ़ मनुष्य गुरु जनों की भी निन्दा करते हैं । द्विज श्रेष्ठ । इस प्रकार जगत् में अनेक उल्टी बातें दिखायी देती हैं। अधर्म भी धर्म से युक्त प्रतीत होता है। इस विषय में आप क्या समझते हैं । ‘धर्म और अधर्मसम्बन्धी कार्यों के विषय में और भी बहुत –सी बातें कही जा सकती हैं। अत एवं जो अपने कुलोचित कर्म में लगा हुआ है, वही महान् यश का भागी होता है’। इस प्रकार श्री महाभारत वन पर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेय समस्या पर्व में पतिव्रतोपाख्यान के प्रसगड़ में ब्राह्मणव्याध संवाद विषयक दो सौ आठवां अध्याय पूरा हुआ ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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