महाभारत सभा पर्व अध्याय 56 श्लोक 16-22

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द्विपन्चाशत्तम (52) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: द्विपन्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 16-22 का हिन्दी अनुवाद

बुद्धि ओर विद्या का अनुसरण करने वाले विद्वान विदुर ने यह सब परिणाम पहले से ही देख लिया था। क्षत्रियों के लिये विनाश की वही यह महान् भय मुझ विवश के सामने आ रहा है। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! ऐसा कहकर बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र ने दैव को परम दुस्तर माना और देव के प्रताप से हीउनके चित्त पर मोह छा गया। वे कर्तव्या कर्तव्य का निर्णय करने में असमर्थ हो गये। फिर पुत्र की बात मानकर उन्होंने सेवकों को आज्ञा दी कि शीघ्र ही तत्पर होकर तोरण स्फाटिक नामक सभा तैयार कराओ। उसमें सुवर्ण तथा वैदूर्य से जटित एक हजार खम्भे और सौ दरवाजे हों। उस सुन्दर सभा की लम्बाई और चौड़ाई एक-एक कोस की होनी चाहिये। उनकी यह आज्ञा सुनकर तेज काम करने वाले चतुर एवं बुद्धिमान सहस्त्रोंक शिल्पीे निर्भिक होकर काम में लग गये । उन्हों ने शीघ्र ही वह सभा तैयार कर दी और उसमें सब तरह की वस्तुतएँ यथास्थालन सजा दीं। थोडे़ ही समय में तैयार हुई उस असंख्य रत्नों से सुशोभित रमणीय एवं विचित्र सभा को अद्भुत सोने के आसनों द्वारा सजा दिया गया । तत्पहश्चा्त् विश्रस्तर सेवकों ने राजा धृतराष्ट्रर- को उस सभाभवन के तैयार हो जाने की सूचना दी । तत्प।श्चाशत् विद्वान् राजा धृतराष्ट्रक ने मन्त्रियों में प्रधान विदुर को आज्ञा दी कि तुम राजकुमार युधिष्ठिर के पास जाकर मेरी आज्ञा से उन्हेंा शीघ्र यहाँ लिवा लाओ। उनसे कहना, ‘मेरी यह विचित्र सभी अनेक प्रकार के रत्नोंर जटित है । इसे बहुमूल्यह शय्याओं और आसनों द्वारा सजाया गया है । युधिष्ठिर ! तुम अपने भाइयों के साथ यहाँ आकर इसे देखो और इसमें सुहृदों की द्यूत क्रीड़ा प्रारम्भ हो’


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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