महाभारत सभा पर्व अध्याय 69 श्लोक 1-15
एकोनसप्ततितम (69) अध्याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)
द्रौपदी का चेतावनी युक्त विलाप एवं भीष्म का वचन
द्रौपदी बोली—हाय ! मेरा जो कार्य सबसे पहले करने का था, वह अभी तक नहीं हुआ । मुझे अब वह कार्य कर लेना चाहिये । इस बलवान् दुरात्मा दु:शासन ने मुझे बलपूर्वक घसीटकर व्याकुल कर दिया है। कौरवों की सभा मैं समस्त कुरूबंशी महात्माओं को प्रणाम करती हूँ । मैंने घबराहट के कारण पहले प्रणाम नहीं किया; अत: यह मेरा अपराध न माना जाय। वैशम्पायनजी कहते हैं —जनमेजय ! दु:शासन के बार-बार खींचने से तपस्विनी द्रौपदी पृर्थ्व पर गिर पड़ी और उस सभा में अत्यन्त दु:खित हो विलाप करने लगी । वह जिस दुरवस्था में पड़ी थी, उसके योग्य कदापि न थी। द्रौपदीने कहा—हा ! मैं स्वयंवर के समय सभा में आयी थी और उस समय रंगभूमि में पधारे हुए राजाओं ने मुझे देखा था । उसके सिवा, अन्य अवसरों पर कहीं भी आज से पहले किसी ने मुझे नहीं देखा । वही मैं आज सभा में बलपूर्वक लायी हूँ। पहले राजभवन में रहते हुए जिस वायु तथा सूर्य भी नहीं देख पाते थे, वही मैं आज इस सभा के भीतर महान् जनसमुदाय में आकर सब के नेत्रों की लक्ष्य बन गयी हूँ। पहले अपने महल में रहते समय जिसका वायु द्वारा स्पर्श भी पाण्डवों को सहन नहीं होता था, उसी मुझे द्रौपदी का यह दुरात्मा दु:शासन भरी सभा में स्पर्श कर रहा है, तो भी आज ये पाण्डुकुमार सह रहे हैं। मैं कुरूकुल की पुत्रवधू एवं पुत्री तुल्य हैूँ । सताये जाने के योग्य नहीं हूँ, फिर भी मुझे यह दारूण केल्श दिया जा रहा है और ये समस्त कुरूवंशी इस सहन् करते हैं । मैं समझती हूँ, बड़ा विपरीत समय आ गया है। इससे बढ़कर दयनीय दशा और क्या हो सकती है कि मुझे-जैसी शुभकर्म परायणा सती-साध्वी स्त्री भरी सभा में विवश करके लायी गयी है । आज राजाओं का धर्म कहाँ चला गया । मैंने सुना है, पहले लोग धर्म परायणा स्त्री को कभी सभा में नहीं लाते थे, किंतु इन कौरवों के समाज में वह प्राचीन सनातन धर्म नष्ट हो गया है । अन्यथा मैं पाण्डवों की पत्नी, धृषृद्युम्र की सुशीला बहन और भगवान् श्रीकृष्ण की सखी होकर राजाओं की इस सभा में कैसे लायी जा सकती थी ? कौरवों ! मैं धर्मराज युधिष्ठिर की धर्मपत्नी तथा उनके समान वर्ण की कन्या हूँ । आप लोग बतावे, मैं दासी हूँ या अदासी ? आप जैसा कहेंगे मैं वैसा ही करूँगी। कुरूवंशी क्षत्रियों ! यह कुरूकुल की कीर्ति में कलंक लगाने-वाला नीच दु:शासन मुझे बहुत कष्ट दे रहा है । मैं इस क्लेश को देर तक नहीं सह सकूँगी। कुरूवंशियों ! आप क्या जानते हैं ? मैं जीती गयी हूँ या नहीं । मैं आपके मुँह से इसका ठीक-ठीक उत्तर सुनना चाहती हूँ । फिर उसी के अनुसार कार्य करूँगी। भीष्मजी ने कहा—कल्याणि ! मैं पहले ही कह चुका हूँ कि धर्म की गति बड़ी सूक्ष्म है । लोक में विज्ञ महात्मा भी उसे ठीक-ठीक नहीं जान सकते । संसार में बलवान् मनुष्य जिसको धर्म समझता है, धर्मविचार के समय लोग उसी को धर्म मान लेते हैं और बलहीन पुरूष जो धर्म बतलाता है, यह बलवान् पुरूष के बताये धर्म से दब जाता है (अत: इस समय कर्ण और दुर्योधन-का बताया हुआ धर्म ही सर्वोपरि हो रहा है)।
« पीछे | आगे » |