महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 270 श्लोक 41-47
सप्तत्यधिकद्विशततम (270) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
सब ओर से शान्त, संतुष्ट, विशुद्धचित्त और ज्ञाननिष्ठ विप्र जिस गति को प्राप्त होते हैं, उसी को परमगति कहते हैं । जो वेदों और उनके द्वारा जानने योग्य परब्रह्म को ठीक-ठीक जानता है, उसी को वेदवेत्ता कहते हैं। उससे भिन्न जो दूसरे लोग हैं, वे मुँह से वेद नहीं पढते, धौंकनी के समान केवल हवा छोड़ते हैं । वेदज्ञ पुरूष सभी विषयों को जानते हैं; क्योंकि वेद में सब कुछ प्रतिष्ठित है । जो-जो वस्तु है और जो नहीं है, उन सबकी स्थ्िाति वेद में बतायी गयी है । सम्पूर्ण शास्त्रों की एकमात्र निष्ठा यही है कि जो-जो दृश्य पदार्थ है वह प्रतीतिकाल में तो विद्यमान है, परंतु परमार्थ ज्ञान की स्थिति में बाधित हो जाने पर वह नहीं है। ज्ञानी पुरूष की दृष्टि में सदसत् स्वरूप ब्रह्म ही इस जगत का आदि, मध्य और अन्त है । सब कुछ त्याग देने पर ही उस ब्रह्म की प्राप्ति होती है। यही बात सम्पूर्ण वेदों में निश्चित की गयी है। वह अपने आनन्दस्वरूप से सब में अनूगत तथा अपवर्ग (मोक्ष) में प्रतिष्ठित है । अत: वह ब्रह्म ॠत, सत्य, ज्ञात, ज्ञातव्य, सबका आत्मा, स्थावर-जंगमरूप, सम्पूर्ण सुख रूप, कल्याणमय, सर्वोत्कृष्ट, अव्यक्त, सबकी उत्पत्ति का कारण और अविनाशी है । उस आकाश के समान असंग, अविनाशी और सदा एकरस तत्व का ज्ञान-नेत्रों वाले सभी पुरूष तेज, क्षमा और शान्तिरूप शुभ साधनों के द्वारा साक्षात्कार करते हैं। जो वास्तव में ब्रह्मवेता से अभिन्न है, उस परब्रह्म परमात्मा को नमस्कार है ।
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