महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-41

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०७:३२, २७ जुलाई २०१५ का अवतरण
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-41 का हिन्दी अनुवाद

शुभाशुभ मानस आदि तीन प्रकार के कर्मो कास्वरुप और उनके फल का एवं मद्द्सेवन के दोषों कावर्णन,आहार-शुद्धि,मांसभक्षण से दोष,मांस न खानेसे लाभ,जीवदया के महत्व,गुरुपूजा कीविधि,उपवास-विधि,ब्र्हमचर्यपालन,तीर्थचर्चा,सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य,अन्न,सुवर्ण, गौभुमि, कन्या और विद्यादान का माहात्म्य , पुण्यतम देशकाल, दिये हुये दान और धर्म की निष्फलता, विविध प्रकार के दान, लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताऔं की पूजा का निरुपण

जन्म-नक्षत्र का योग आने पर पवित्र स्थानों में पर्वों के दिन तथा देवता सम्बन्धी धर्म-कृत्यों में गृहस्थों को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन अवश्य करना चाहिये। जो सदा एकपत्नीव्रती रहता है, वह ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का फल पाता है। ब्रह्मचारियों को पवित्रता, आयु तथा आरोग्य की प्राप्ति होती है। उमा ने पूछा- देव! बहुत से धर्माभिलाषी पुरूष तीर्थयात्रा का व्रत धारण करते हैं, अतः लोकों में कौन-कौन से तीर्थ हैं? यह मुझे बताने की कृपा करें। श्रीमहेश्वर ने कहा- प्रिये! मैं प्रसन्नतापूर्वक तुम्हें तीर्थस्थान की विधि बताता हूँ, सुनो। पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने दूसरों को पवित्र करने तथा स्वयं भी पवित्र होने के लिये इस विधि का निर्माण किया था। लोक में जो बड़ी-बड़ी नदियाँ हैं, उन सबका नाम तीर्थ है। उनमें भी जिनका प्रवाह पूरब की ओर है, वे श्रेष्ठ हैं और जहाँ दो नदियाँ परस्पर मिलती हैं, वह स्थान भी उत्तम तीर्थ कहा गया है।। और उन नदियों का जहाँ समुद्र के साथ संयोग हुआ है, वह स्थान सबसे श्रेष्ठ तीर्थ बताया गया है। देवि! उन नदियों के दोनों तटों पर मनीषी पुरूषों ने जिस स्थान का सेवन किया है, वह उत्कृष्ट तीर्थ माना गया है। समुद्र भी परम पावन एवं शुभ महातीर्थ है। उसके तट पर जो तीर्थ हैं, उनमें महात्मा पुरूषों ने गोता लगाया है। प्रिये! महर्षियों द्वारा सेवित जो जलस्त्रोत और पर्वत हैं, उनके तटों और तड़ागों पर भी बहुत से मुनि निवास करते हैं। उन तपस्वी मुनियों के प्रभाव से उस स्थान को तीर्थ समझना चाहिये। ऋषियों के निवासकाल से ही वह स्थान जगत् के हित के लिये तीर्थत्व प्राप्त कर लेता है। देवि! इस प्रकार स्थान विशेष तीर्थ बन जाता है। अब उसकी स्नानविधि सुनो। जो जन्मकाल से ही बहुत से व्रत करता आया हो, वह पुरूष तीर्थों के सेवन की इच्छा से यदि वहाँ जाय तो नियम से रहकर तीन या एक उपवास करे। पवित्र मास से युक्त समय में पूर्णिमा को विधिपूर्वक बाहर ही पवित्र हो मुझमें मन लगाकर उस तीर्थ के भीतर प्रवेश करे। उसमें तीन बार गोता लगाकर जल के निकट ही ब्राह्मण को दक्षिणा दे, फिर देवालय में देवता की पूजा करके जहाँ इच्छा हो, वहाँ जाय। प्रिये! प्रत्येक तीर्थ में सबके लिये स्नान का यही विधान है। निकटवर्ती तीर्थ में स्नान करने की अपेक्षा दूरवर्ती तीर्थ में स्नान आदि करना अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। जो पहले से ही शुद्ध हो, उसके लिये तीर्थस्थान शुभकारक माना जाता है। तपस्या, पापनाश और बाहर-भीतर की पवित्रता के लिये तीर्थों में स्नान किया जाता है। इस प्रकार पुण्यतीर्थों में स्नान करना कल्याणकारी होता है। यह सब नियमपूर्वक सम्पादित होने वाले पुण्य का तुम्हारे सामने वर्णन किया गया है। उमा ने पूछा- भगवन्! जो द्रव्य लोक में सबको प्राप्त है, जो सर्वसाधारण की वस्तु है, उस सर्वसामान्य वस्तु का दान करने वाला मनुष्य कैसे धर्म का भागी होता है? श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! लोक में जो भौतिक द्रव्य हैं, वे सबके लिये साधारण हैं, उन वस्तुओं का दान करने वाला मनुष्य किस तरह पुण्य का भागी होता है, यह बताता हूँ, सुनो। दान देने वाला, उसे ग्रहण करने वाला, देय वस्तु, उपक्रम (उसे देने का प्रयत्न), देश और काल- इन छः वस्तुओं के गुणों से युक्त दान उत्तम बताया जाता है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।