महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 273 श्लोक 1-14
त्रिसप्तत्यधिकद्विशततम (273) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के चार प्रश्न और उनका उत्तर
युधिष्ठिर ने पूछा - पितामह ! मनुष्य पापात्मा कैसे हो जाता है? वह धर्म का आचरण किस प्रकार करता है ? किस हेतु से उसे वैराग्य प्राप्त होता है और किस साधन से वह मोक्ष पाता है ? भीष्म जी ने कहा- राजन् ! तुम्हें सब धर्मों का ज्ञान है । तुम तो लोकमर्यादा की रक्षा तथा मेरी प्रतिष्ठा बढाने के लिये मुझसे प्रश्न कर रहे हो। अच्छा अब तुम मोक्ष, वैराग्य, पाप और धर्म का मूल क्या है, इसको श्रवण करों । भरत श्रेष्ठ ! मनुष्य को (शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्ध-इन ) पाँचों विषयों का अनुभव करने के लिये पहले इच्छा होती है। फिर उन विषयों में से किसी एक को पाकर उसके प्रति राग या द्वेष हो जाता है । तत्पश्चात जिसके प्रति राग होता है, उसे पाने के लिये वह प्रयत्न करता है। बड़े-बड़े कार्यों का आरम्भ करता है। वह अपने इच्छित रूप और गन्ध आदि का बारंबार सेवन करना चाहता है । इससे उन विषयों के प्रति उसके मन में राग उत्पन्न हो जाता है। तदनन्तर प्रतिकूल विषय से द्वेष होता है। फिर अनुकूल विषय के लिये लोभ होता है और लोभ के बाद उसके मन पर मोह अधिकार जमा लेता है । लोभ और मोह से घिर हुये तथा राग-द्वेष के वशीभूत हुए मनुष्य की बुद्धि धर्म में नहीं लगती है। वह किसी-न-किसी बहाने से दिखाऊ धर्म का आचरण करता है । कुरूनन्दन ! वह कोई बहाना लेकर ही धर्म करता है, कपट से ही धन कमाने की रूचि रखता है और यदि कपट से धन प्राप्त करने में सफलता मिल गयी तो वह उसी में अपनी सारी बुद्धि लगा देता है। भरतनन्दन ! फिर तो विद्वानों और सुहृदयों के मना करने पर भी वह केवल पाप ही करना चाहता है तथा मना करने वालों को धर्मशास्त्र के वाक्यों के द्वारा प्रतिपादित न्याययुक्त उत्तर दे देता है । उसका राग और मोहजनित तीन प्रकार का अधर्म बढता है। वह मन से पाप की ही बात सोचता है, वाणी से पाप ही बोलता है और क्रिया द्वारा पाप ही करता है । श्रेष्ठ पुरूष तो अधर्म में प्रवृत हुए मनुष्य के दोष जानते है; परंतु उस पापी के समान स्वभाव वाले पापाचारी मनुष्य उसके साथ मित्रता स्थापित करते हैं। ऐसा पुरूष इस लोक में ही सुख नहीं पाता है, फिर परलोक में तो पा ही कैसे सकता है । इस प्रकार मनुष्य पापात्मा हो जाता है। अब धर्मात्मा के विषय में मुझसे सुनों। वह जिस प्रकार परहित-साधक कल्याणकारी धर्म का आचरण करता है, उसी प्रकार कल्याण का भागी होता है। वह क्षेमकारक धर्म के प्रभाव से ही अभीष्ट गति को प्राप्त होता है । जो पुरूष अपनी बुद्धि से राग आदि दोषों को पहले ही देख लेता है, वह सुख-दु:ख को समझने में कुशल होता है। फिर वह श्रेष्ठ पुरूषों का सेवन करता है। सत्पुरूषों की सेवा या सत्संग से और सत्कर्मों के अभ्यास से उस पुरूष की बुद्धि बढती है।
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