महाभारत आदि पर्व अध्याय 64 श्लोक 20-37

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चतुःषष्टितम (64) अध्‍याय: आदि पर्व (अंशावतर पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: चतुःषष्टितम अध्‍याय: श्लोक 20-37 का हिन्दी अनुवाद

राजन्! उस समय ब्राह्मण न तो वेद का विक्रय करते और न शूद्रों के निकट वेदमन्त्रों का उच्चारण ही करते थे। वैश्‍यगण बैलों द्वारा इस पृथ्वी पर दूसरों से खेती कराते हुए भी स्वयं उनके कंधे पर जुआ नहीं रखते थे- उन्हें बोझ ढोने में नहीं लगाते थे और दुर्बल अंगोवाले निकम्मे पशुओं को भी दाना-घास देकर उनके जीवन की रक्षा रकते थे। जब तक बछड़े केवल दूध पर रहते, घास नहीं चरते, तब तक मनुष्य गौओं का दूध नहीं दुहते थे। व्यापारी लोग बेचने योग्य वस्तुओं का झूठे माप-तौल द्वारा विक्रय नहीं करते थे। नरश्रेष्ठ ! सब मनुष्य धर्म की ओर दृष्टि रखकर धर्म में जी तत्पर हो धर्मयुक्त कर्मों का ही अनुष्ठान करते थे। राजन् ! उस समय सब वर्णों के लोग अपने-अपने कर्म के पालन में लगे रहते थे। नरश्रेष्ठ ! इस प्रकार उस समय कहीं भी धर्म का हृास नहीं होता था। भरतश्रेष्ठ। गौऐं तथा स्त्रियां भी ठीक समय पर संतान उत्पन्न करती थीं। ऋतु अपने पर ही वृक्षों में फूल और फल लगते थे। नरेश्‍वर ! इस तरह उस समय सब ओर सत्ययुग छा रहा था। सारी पृथ्वी नाना प्रकार के प्राणियों से खूब भरी-पूरी रहती थी। भरतश्रेष्ठ ! इस प्रकार सम्पूर्ण मानव-जगत् बहुत प्रसन्न था। मनुजेश्‍वर! इसी समय असुरलोग राजपत्नियों के गर्भ से जन्म लेने लगे। उन दिनों अदिति के पुत्रों (देवताओं) द्वारा दैत्यगण अनेक बार युद्व में पराजित हो चुके थे। स्वर्ग के ऐश्‍वर्य भ्रष्ट होने पर वे इस पृथ्वी पर ही जन्म लेने लगे। प्रभु ! यहीं रहकर देवत्व प्राप्त करेन की इच्छा से वे मनस्वी असुर भूतल पर मनुष्यों तथा भिन्न-भिन्न प्राणियों में जन्म लेने लगे। राजेन्द्र ! गौओं, घोड़ो, गदहो, ऊंटों, भैसों, कच्चे मांस खाने वाले पशुओं, हाथियों, और मृगों की योनि में भी यहां असुरों ने जन्म लिया और अभी तक वे जन्म धारण करते जा रहे थे। उन सबसे यह पृथ्वी इस प्रकार भर गयी कि अपने-आपको भी धारण करने में भी समर्थ न हो सकी। स्वर्ग से इस लोक में गिरे हुए तथा राजाओं के रूप में उत्पन्न हुए कितने ही दैत्य और दानव अत्यन्त मद से उन्मत्त रहते थे। वे पराक्रमी होने के साथ ही अहंकारी भी थे। अनेक प्रकार के रूप धारण कर अपने शत्रुओं का मन मर्दन करते हुए समुद्र पर्यन्त सारी पृथ्वी पर विचरते रहते थे। वे ब्राम्हणों, क्षत्रियों, वैश्‍यों तथा शूद्रों को भी सताया करते थे। अन्यान्य जीवों को भी अपने बल और पराक्रम से पीड़ा देते थे। राजन् ! वे असुर लाखों की संख्या में उत्पन्न हुए थे और समस्त प्राणियों को डराते-धमकाते तथा उनकी हिंसा करते हुए भूमण्डल में सब ओर घूमते रहते थे। वे वेद और ब्राह्मण के विरोधी, पराक्रम के नषे में चूर तथा अहंकार और बल से मतवाले होकर इधर-उधर आश्रम वासी महर्षियों का भी तिरस्कार करने लगे। राजन् ! जब इस प्रकार बल और पराक्रम के मद से उन्मत्त महादैत्य विशेष यत्न पूर्वक इस पृथ्वी को पीड़ा देने लगे, तब यह ब्रह्माजी की शरण में जाने को उद्यम हुई।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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