महाभारत वन पर्व अध्याय 141 श्लोक 1-14

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एकचत्‍वारि‍शदधि‍कशततम (141) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )

महाभारत: वन पर्व: एकचत्‍वारि‍शदधि‍कशततम अध्‍याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

युधि‍ष्‍ठि‍र का भीमसेन से अर्जुन को न देखने के कारण मानसि‍क चि‍न्‍ता प्रकट करना एवं उनके गुणों का स्‍मरण करते हुए गन्‍धमादन पर्वत पर जाने का द्दढ़ नि‍श्‍चय करना

युधि‍ष्‍ठि‍र बोले- भीमसेन, नकुल-सहदेव और द्रौपदी ! तुम सबब लोग ध्‍यान देकर सुनो । यह नि‍श्‍चय है कि‍ पूर्वकृत कर्मो का बि‍ना भोग कि‍ये कभी नाश नहीं होता। देखा, उन्‍ही के कारण आज हम राजकुमार होकर भी वन वन में भटक रहे है । यद्यपि‍ हमलोग दुर्बल है, क्‍लेश में पड़े हुए है, तथापि‍ जो एक दूसरे से उत्‍साहपूर्वक बातें करते है और जहां जाना सम्‍भव नहीं, उस मार्ग पर भी आगे बढ़ते जा रहे है, उसमें एक ही कारण है, हम सबके हृदय में अर्जुन को देखने के लि‍ये प्रबल उत्‍कण्‍डा है । इताना प्रयास करने पर भी मैं वीर धनंजय को जो अबतक अपने समीप नहीं देख पा रहा हूं, इसकी चि‍न्‍ता मेरे सम्‍पूर्ण अंगो को उसी प्रकार दग्‍ध कर रही है, जैसे आग रूई के ढेर को जलाती रहती है । उसी के दर्शन की प्‍यास लेकर मैं भाइयों सहि‍त इस वन में आया हूं। वीर भीमसेन ! दु:शासन ने जो द्रौपदी के कैश पकड़ लि‍ये थे, वह घटना याद आकर मुझे और भी शोक से दग्‍ध कर देती है । वृकोदर ! श्रायंकर धनुष धारण करने वाले अजेय वीर अमि‍त तेजस्‍वी अर्जुन को, जो नकुल से पहले उत्‍पन्‍न हुआ है, मैं अब तक नहीं देख रहा हूं, इसक कारण मुझे बड़ा संताप हो रहा है । अर्जुन को देखने की ही अभि‍लाषा से मैं तुम लोगो के साथ वि‍भि‍न्‍न तीर्थों में, रमणीय वनों मे ओर सुन्‍दर सरोवरो के तटपर वि‍चर रहा हूं । भीमसेन ! आज पांच वर्ष हो गये, मैं अपने वीर भाई सत्‍यप्रति‍ज्ञ के दर्शन से वंचि‍त हो रहा हूं। इसके कारण मुझे बड़ी चि‍न्‍ता हो रही है । वृकोदर ! सि‍हं के समान मस्‍तानी चाल से चलने वाले, नि‍द्रावि‍जयी, श्‍यामवर्ण, महाबाहु अर्जुन को नहीं देख पा रहा हूं, इसलि‍ये मेरे मन में बड़ा संताप हो रहा है । कुरूश्रेष्‍ट भीमसेन ! अस्‍त्रवि‍द्या में प्रचीण, युद्धकुशल और अनुपम धर्नधर उस अर्जुन को नहीं देखता हूं, इस कारण मुझे बड़ा कष्‍ट होता है । जो युद्ध के समय शत्रुओं के समूह में कुपि‍त यमराज की भांति‍ वि‍चरता है, जि‍सके कंधे सिं‍ह के समान है तथा जो मद की चाल धारा बहाने वाले मत्‍त गजराज के समान शोभा पाता है, उस वीर धनंजय से अबतक भेंट न हो सकी; इसका मुझे बड़ा दु:ख है । वृकोदर ! जो पराक्रम और संपत्‍ति‍ में देवराज इन्‍द्र से तनि‍क भी कम नहीं है, जि‍सके रथ के घोड़े श्‍वेत रंग के है, जो नकुल-सहदेव से अवस्‍था में बड़ा है, जि‍सके पराक्रमी की कोई सीमा नहीं है तथा जो उस धनुर्धर एवं अजेय है, उस वीरवर अर्जुन के दर्शन से मैं वंचि‍त हूं; इसके लि‍ये मुझे महान कष्‍ट हो रहा है। मैं चि‍नता की आग में जला जा रहा हूं । जो छोटे लोगो के आक्षेप करने पर भी सदा क्षमाशील होने के कारण उस आक्षेप को सह लेता है तथा सरल मार्ग से अपनी शरण में आने वाले लोगो को सुख पहूंचाकर उन्‍हें अभयदान देता है, वही अर्जुन, जब कोई कुटि‍ल मार्ग का आश्रम ले छल कपट से उस पर आघात करना चाहता है, तब वह वज्रधारी इन्‍द्र ही क्‍यों न हो, उसके लि‍ये काल और वि‍ष के समान भयंकर हो जाता है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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