महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 282 श्लोक 18-35

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द्वयशीत्‍यधिकद्विशततम (282) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: द्वयशीत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद

परंतु उस ब्रह्महत्‍या ने यत्‍नपूर्वक उनका पीछा करके वहाँ भी उन्‍हें जा पकड़ा। कुरूनन्‍दन ! ब्रह्महत्‍या द्वारा पकड़ लिये जाने पर इन्‍द्र निस्‍तेज हो गये । देवेन्‍द्र ने उसके निवारण के लिये महान प्रयत्‍न किया; परंतु किसी तरह भी वे उसे दूर न कर सके । भरतभूषण ! ब्रह्महत्‍या ने देवराज इन्‍द्र को अपना बंदी बना ही लिया। वे उसी अवस्‍था में ब्रह्माजी के पास गये और मस्‍तक झुकाकर उन्‍होंने ब्रह्माजी को प्रणा‍म किया । भरतसत्तम ! एक श्रेष्‍ठ ब्राह्मण के वध से पैदा हुई ब्रह्महत्‍या ने इन्‍द्र को पकड़ लिया है - यह जानकर ब्रह्माजी विचार करने लगे । महाबाहु भारत ! तब ब्रह्माजी ने उस ब्रह्महत्‍या को अपनी मीठी वाणी द्वारा सान्‍त्‍वना देते हुए-से उससे कहा - 'भाविनि ! ये देवताओं के राजा इन्‍द्र हैं, इन्‍हें छोड़ दो। मेरा यह प्रिय कार्य करो। बोलो, मैं तुम्‍हारी कौन-सी अभिलाषा पूर्ण करूँ। तुम जिस किसी मनोरथ को पाना चाहो उसे बताओ' । ब्रह्महत्‍या बोली - तीनों लोकों की सृष्टि करने वाले त्रिभुवन पूजित आप परमदेव के प्रसन्‍न हो जाने पर मैं अपने सारे मनोरथों को पूर्ण हुआ मानती हूँ। अब आप मेरे लिये केवल निवासस्‍थान का प्रबन्‍ध कर दीजिये । आपने सम्‍पूर्ण लोकों की रक्षा के लिये यह धर्म की मर्यादा बाँधी है। देव ! आप ही ने इस महत्‍वपूर्ण मर्यादा की स्‍थापना करके इसे चलाया है । धर्म के ज्ञाता सर्वलोकेश्‍वर प्रभो ! जब आप प्रसन्‍न हैं तो मैं इन्‍द्र को छोड़कर हट जाऊँगी; परंतु आप मेरे लिये निवास-स्‍थान की व्‍यवस्‍था कर दीजिये । भीष्‍म जी कहते हैं- युधिष्ठिर ! तब ब्रह्माजी ने ब्रह्महत्‍या से कहा - 'बहुत अच्‍छा, मैं तुम्‍हारे रहने की व्‍यवस्‍था करता हूँ' ऐसा कहकर उन्‍होंने उपाय द्वारा इन्‍द्र की ब्रह्महत्‍या को दूर किया । तदनन्‍तर महात्‍मा स्‍वयम्‍भूने वहाँ अग्निदेव का स्‍मरण किया। उनके स्‍मरण करते ही वे ब्रह्माजी के पास आ गये और इस प्रकार बोले - 'भगवन् ! अनिन्‍द्य देव ! मैं आपके निकट आया हूँ। प्रभो ! मुझे जो कार्य करना हो, उसके लिये आप मुझे आज्ञा दें । ब्रह्माजी ने कहा - अग्निदेव ! मैं इन्‍द्र को पापमुक्‍त करने के लिये इस ब्रह्महत्‍या के कई भाग करूँगा । इसका एक चतुर्थांश तुम भी ग्रहण कर लो । अग्नि ने कहा - ब्रह्मन ! प्रभो ! मेरे लिये आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, परंतु मैं भी इस ब्रह्महत्‍या से मुक्‍त हो सकूँ, इसके लिये इसकी अन्तिम अवधि क्‍या होगी, इस पर आप विचार करें। विश्‍ववन्‍द्य पितामह ! मैं इस बात को ठीक-ठीक जानना चाहता हूँ । ब्रह्माजी ने कहा- अग्निदेव ! यदि किसी स्‍थान पर तुम प्रज्‍वलित हो रहे हो, वहाँ पहुँचकर कोई अधिकारी मानव तमोगुण से आवृत होने के कारण बीज, औषधि या रसों से स्‍वयं ही तुम्‍हारा पूजन नहीं करेगा तो उसी पर तुरंत यह ब्रह्महत्‍या चली जायेगी और उसी के भीतर निवास करने लगेगी; अत: हव्‍यवाहन ! तुम्‍हारी मानसिक चिन्‍ता दूर हो जानी चाहिये । प्रभो ! ब्रह्माजी के ऐसा कहने पर हव्‍य और कव्‍य के भोक्‍ता भगवान् अग्नि देव ने उन पितामह की वह आज्ञा स्‍वीकार कर ली। इस प्रकार ब्रह्महत्‍या का एक चौथाई भाग अग्नि में चला गया ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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