महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 284 श्लोक 1-13

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चतुरशीत्‍यधिकद्विशततम (284) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: चतुरशीत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

पार्वती के रोष एवं खेद का निवारण करने के लिये भगवान् शिव के द्वारा यज्ञ का विध्‍वंस, दक्षद्वारा किये हुए शिवसहस्‍त्रनामस्‍तोत्र से संतुष्‍ट होकर महादेवजी का उन्‍हें वरदान देना तथा इस स्‍तोत्र की महिमा

जनमेजय ने कहा- ब्रह्मन ! वैवस्‍वत मन्‍वन्‍तर में प्रचेताओं के पुत्र दक्षप्रजापति का अश्‍वमेघ यज्ञ कैसे नष्‍ट हो गया ? दक्ष के यज्ञ में मेरा आवाहन न होना पार्वती के दु:ख का कारण बन गया है- यह जानकर भगवान् शंकर, जो सम्‍पूर्ण प्राणियों के आत्‍मा हैं, जब कूपित हो उठे, तब फिर उन्‍हीं की कृपापूर्ण प्रसन्‍नता से दक्षप्रजापति का यह यज्ञ कैसे सम्‍पन्‍न हुआ ? मैं यह वृतान्‍त जानना चाहता हूँ, आप इसे यथार्थ रूप से बताने की कृपा करें । वैशम्‍पायन जी ने कहा - प्राचीन काल की बात है - हिमालय के पार्श्‍ववर्ती गंगाद्वार (हरिद्वार ) के शुभ देश में, जहाँ ॠषियों तथा सिद्ध पुरूषों का निवास है, प्रजापति दक्ष ने अपने यज्ञ का आयोजन किया था । वह स्‍थान गन्‍धर्वों और अप्‍सराओं से भरा था। भाँति-भाँति के वृक्ष समूह और लताएँ वहाँ सब ओर छा रही थीं। धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ प्रजापति दक्ष ॠषिसमुदाय से घिरे हुए बैठे । उस समय पृथ्‍वी, अन्‍तरिक्ष तथा स्‍वर्गलोक के निवासी भी वहाँ जुटे हुए थे और वे सब-के-सब हाथ जोड़कर प्रजापति को प्रणाम करके उनकी सेवा में खड़े थे । देवता, दानव, गन्‍धर्व, पिशाच, नाग, राक्षस, हाहा और हूहू नामक गन्‍धर्व, तुम्‍बुरू, नारद, विश्‍वावसु, विश्‍वसेन तथा दूसरे-दूसरे गन्‍धर्व और अप्‍सराएँ वहाँ उपस्थित थीं । आदित्‍य, वसु, रूद्र, साध्‍य और मरूदगण -ये सब-के-सब इन्‍द्र के साथ यज्ञ में भाग लेने के लिये वहाँ पधारे थे । उष्‍मपा (सूर्य की किरणों का पान करने वाले ), सोमपा (सोमरस पीने वाले), धूमपा (यज्ञ में धूम-पान करने वाले) और आज्‍यपा (घृत-पान करने वाले) पितर और ॠषि भी ब्रह्माजी के साथ उस यज्ञ में पधारे थे । ये तथा और भी बहुत-से चतुर्विध प्राणिसमुदाय जरायुज, अण्‍डज, स्‍वेदज और उद्भिज्‍ज वहाँ उपस्थित हुए थे । जिन्‍हें निमन्त्रित करके बुलाया गया था, वे सब देवता अपनी पत्नियों के साथ विमान पर बैठकर आते समय प्रज्‍वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे । (महामुनि दधीचि भी उस यज्ञमण्‍डप में उपस्थित थे। उन्‍होंने देखा कि देवता और दानव आदि का समाज तो खूब जुटा हुआ है; परंतु भगवान् शंकर दिखायी नहीं देते हैं। जान पड़ता है उनका आवाहन नहीं किया गया है। इससे उनके मन में बड़ा दु:ख हुआ । ) उन सब देवताओं को वहाँ उपस्थित देख दधीचि क्रोध में भर गये और बोले - 'सज्‍जनों ! जिसमें भगवान् शिव की पूजा नहीं होती है, वह न यज्ञ है और न धर्म। यह यज्ञ भी भगवान् शिव के बिना यज्ञ कहने योग्‍य नहीं रहा। इसका आयोजन करने वाले लोग वध और बन्‍धन की दुर्दशा में पड़ने वाले हैं। अहो ! काल का कैसा उलट-फेर है । 'इस महायज्ञ में अत्‍यन्‍त घोर विनाश उपस्थित होने वाला है; किंतु मोहवश कोई देख नहीं रहे हैं - समझ नहीं पाते हैं' ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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