महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 94 श्लोक 58-76
चतुर्नवतितम (94) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
उनके ऐसा कहने पर सम्पूर्ण देवता इस प्रकार बोले-‘देव । वृत्रा सुर ने हमारा तेज हर लिया है। आप देवताओं के आश्रयदाता हों। महेश्वर । आप हमारे शरीरों की दशा देखिये। हम वृत्रा सुर के प्रहारों से जर्जर हो गये हैं, इसलिये आपकी शरण में आये हैं। आप में आश्रय दीजिये’।
भगवान् शिव बोले-देवताओं । तुम्हें विदित हो कि यह प्रजापति त्वष्टा के तेज से उत्पन्न हुई अत्यन्त प्रबल एवं भयंकर कृत्या है। जिन्होंने अपने मन और इन्द्रियों को वश में नहीं किया है, ऐसे लोगों के लिये इस कृत्या का निवारण करना अत्यन्त कठिन है। तथापि मुझे सम्पूर्ण देवताओं की सहायता अवशय करनी चाहिये। अत: इन्द्र । मेरे शरीर से उत्पन्न हुए इस तेजस्वी कवच को ग्रहण करो। सुरेश्रवर । मेरे बताये हुए इस मन्त्र का मानसिक जप कर के असुर मुख्य देवशत्रु वध करने के लिये इसे अपने शरीर में बांध लो।
द्रोणाचार्य कहते हैं- राजन् । ऐसा कहकर वरदायक भगवान् शड़कर ने वह कवच और उसका मन्त्र उन्हें दे दिया। उस कवच ये सुरक्षित हो इन्द्र वृत्रा सुर की सेना का सामना करने के लिये गये। उस महान् युद्ध में नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों के समुदाय उन के उपर चलाये गये; परंतु उनके द्वारा इन्द्र के उस कवच-बन्धन की सन्धि भी नहीं काटी जा सकी। तदनन्तर देवराज इन्द्र स्वयं ही समरागड़ण में वृत्रासुर को मार डाला । इसके बाद उन्होंने वह कवच तथा उसे बांध ने की मन्त्र युक्त विधि अडि़गरा को दे दी। अडि़गरा अपने मन्त्रज्ञ पुत्र बृहस्पति को उसका उपदेश दिया और बृहस्पति ने परम बुद्धिमान आगिनवेश्य को यह विद्या प्रदान की। अग्निवेश्य ने मुझे उसका उपदेश किया था। नृप श्रेष्ठ । उसी मन्त्र से आज तुम्हारे शरीर की रक्षा के लिये मैं यह कवच बांध रहा हूं।
संजय कहते हैं- महाराज । वहां आप के महातेजस्वी पुत्र यह प्रसंग सुनाकर आचार्य शिरोमणि द्रोण ने पुन: धीरे से यह बात कही-। ‘भारत । जैसे पूर्व काल में रण क्षैत्र में भगवान् ब्रहा ने श्री कृष्ण के शरीर में कवच बांधा था, उसी प्रकार मैं भी ब्रहा सूत्र से तुम्हारे इस कवच को बांधता हूं। ‘तारकामय संग्राम में ब्रहाजी ने इन्द्र के शरीर में जिस प्रकार दिव्य कवच बांधा था, उसी प्रकार मैं भी तुम्हारे शरीर में बांध रहा हूं’। इस प्रकार मन्त्र के द्वारा राजा दुर्योधन के शरीर में विधि पूर्वक कवच बांधकर विप्रवर द्रोणाचार्य ने उसे महान् युद्ध के लिये भेजा। महामना आचार्य के द्वारा अपने शरीर में कवच बंध जाने पर महाबाहु दुर्योधन प्रहार करने में कुशल एक सहस्त्र त्रिगर्तदेशीय रथियों, एक सहस्त्र पराक्रमशाली मतवाले हाथी सवारों एक लाख घुड़सवारों तथा अन्य महारथियों से घिरकर नाना प्रकार के रणवाद्यों की ध्वनी के साथ अर्जुन के रथ की ओर चला। ठीक उसी तरह, जैसे राजा बलि (इन्द्र के साथ युद्ध के लिये) यात्रा करते हैं। भारत। उस समय अगाध समुद्र के समान कुरुनन्दन दुर्योधन को युद्ध के लिये प्रस्थान करते देख आप की सेना में बड़े जोर से कोलाहल होने लगा।
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