महाभारत वन पर्व अध्याय 312 श्लोक 18-38

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द्वादशाधिकत्रिशततम (312) अध्याय: वन पर्व (आरणेयपर्व)

महाभारत: वन पर्व: द्वादशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः श्लोक 18-38 का हिन्दी अनुवाद


‘तात ! पानी पीने का साहस न करो। यहाँ पहले से ही मेरा अधिकार हो चुका है। तुम पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दे दो, फिर इच्छानुसार जल पीओ और साथ ले भी जाओ’। प्यासे सहदेव ने उस वचन की अवहेलना करके वहाँ का ठंडा जल पीने लगे एवं पीते ही अचेत होकर गिर पड़े । तदनन्तर कुन्तीकुमार युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा- ‘शत्रुनाशन बीभत्यो ! तुमहारे दोनों भाइयों को गये हुए बहुत देर हो गयी । ‘तुम्हारा कल्याण हो। तुम उन दोनों को बुला लाओ और साथ ही पानी भी ले आओ। तात ! तुम्हीं हम सब दुखी बन्धुओं के सहारे हो’। यधिष्ठिर के ऐसा कहने पर निद्राविजयी बुद्धिमान अर्जुन धनुष-बाण और खड्ग लिये उस सरोवर के तट पर गये । श्वेतवाहन अर्जुन ने जल लाने के लिये गये हुए उन दोनों पुरुषसिंह भाइयों को वहाँ मरे हुए देखा । दोनों को प्रगाढ़ निद्रा में सोये हुए की भाँति देखकर उन्होंने धनुष उठाकर उस वन का अच्छी तरह निरीक्षण किया। जब उस विशाल वन में उन्हें कोई भी हिंसक प्राणी नहीं दिखायी दिया , तब सव्यसाची अर्जुन थककर पानी की ओर दौड़े। दौड़ते समय उन्हें आकाश की ओर से आती हुई वाणी सुनायी दी- ‘कुन्तीनन्दन ! क्यो पानी पी रहे हो ? तुम जबरदस्ती यह जल नहीं पी सकते। भारत ! यदि मेरे उन प्रश्नों का उत्तर दे सको, तो यहाँ का पानी पीओ और साथ ले भी जाओ’। 1824 इस प्रकार रोके जाने पर अर्जुन ने कहा- ‘जरा सामने आकर देखो। सामने आते ही बाणों से टुकड़े-टुकड़े हो जाने पर फिर तुम इस प्रकार नहीं बोल पाओगे’। ऐसा कहकर अर्जुन ने अपनी शब्दवेध-कला का परिचय देते हुए दिव्यास्त्रों से अभिमन्त्रित बाणों की सब ओर झड़ी लगा दी । भरतश्रेष्ठ जनमेजय ! अर्जुन उस समय कर्णी, नालीक तथा नाराच आदि बाणों की वर्षा कर रहे थे। प्यास से पीडि़त हुए अर्जुन ने कितने ही अमोघ बाणों का प्रयोग करके आकाश में भी कई बार बाण समूह की वर्षा की । यक्ष बोला- पार्थ ! इस प्रकार प्राणियों पर आघात करने से क्या लाभ द्य पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दोख् फिर जल पीओ। यदि तुम प्रश्नों का उत्तर दिये बिना ही यहाँ का जल पीओगे, तो पीते ही मर जाओगे । उसके ऐसा कहने पर कुन्तीपुत्र सव्यसाची धनंजय उसके वचनों की अवहेलना करके जल पीने लगे और पीते ही अचेत होकर गिर पड़े । तब कुन्तीकुमार युधिष्ठिर ने भीमसेन से कहा- ‘परंतप ! भरतनन्दन ! नकुल, सहदेव और अर्जुन को पानी के लिये गये बहुत देर हो गयी। वे अभी तक नहीं आ रहे हैं। तुम्हारा कल्याण हो। तुम जाकर उन्हें बुला लाओ और पानी भी ले आओ’। तब भीेमसेन ‘बहुत अच्छा’ कहकर उस स्थान पर गये, जहाँ वे पुरुषसिंह तीनों भाई पृथ्वी पर पड़े थे। उन्हें उस अवस्था में देखकर भीमसेन को बड़ा दुःख हुआ। इधर प्यास भी उन्हें बहुत कष्ट दे रही थी । महाबाहु भीमसेन मन-ही-मन यह निश्चय किया कि ‘यह यक्षों तथा राक्षसों का काम है।’ फिर उन्होंने सोचा; ‘आज निश्चय ही मुझे शत्रु के साथ युद्ध करना पड़ेगा, अतः पहले जल तो पी लूँ।’ ऐसा निश्चय करके प्यासे नरश्रेष्ठ कुन्तीकुमार भीमसेन जल की ओर दौड़े।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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