महाभारत वन पर्व अध्याय 201 श्लोक 1-20

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एकाधिकद्विशततम (201) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व )

महाभारत: वन पर्व: एकाधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


उत्तकड़ की तपस्‍या से प्रसन्न होकर भगवान का उन्‍हें वरदान देना तथा इक्ष्‍वाकु-वंशी राजा कुवलाश्रव का धुन्‍धुमार नाम पड़ने का कारण बताना वैश्‍म्‍पायनजी कहते हैं- भरतश्रेष्‍ठ महाराज जनमेजय। महाभाग मार्कण्‍डेय मुनि के मुख से राजर्षि इन्‍द्रद्युम्र को पुन: स्‍वर्ग प्राप्ति होने का वृत्तान्‍त (तथा दान माहात्‍म्‍य ) सुनकर राजा युधिष्ठिर ने पा‍प र‍हित, दीर्घायु तथा तपो वृद्ध महात्‍मा मार्कण्‍डेय से इस प्रकार पूछा । ‘धर्मज्ञ मुने । आप देवता, दानव तथा राक्षसों को भी अच्‍छी तरह जानते हैं। आपको नाना प्रकार के राजवंशों तथा ऋषियों की सनातन वंशपरम्‍परा का भी ज्ञान है । ‘द्विज श्रेष्‍ठ । इस लोक में कोई ऐसी वस्‍तु नहीं जो आप से अज्ञात हो। मुने। आप मनुष्‍य, नाग, राक्षक, देवता, गन्‍धर्व, यक्, किन्नर तथा अप्‍सराओं की भी दिव्‍य कथाएं जानते हैं । ‘विप्रवर। अब मैं यथार्थरुप से यह सुनना चाहता हूं कि इक्ष्‍वाकुवंश में जो कुवलाश्रव नाम से विख्‍यात विजयी राजा हो गये हैं, वे क्‍यों नाम बदलकर ‘धुन्‍धुमार’ कहलाने लगे । ‘भृगुश्रेष्‍ठ । बुद्धिमान राजा कुवलाश्रव के इस नाम परिवर्तन का यथार्थ कारण मैं जानना चाहता हूं । वैशम्‍पायनजी ने कहा-भारत। धर्मराज युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर महामुनि मार्कण्‍डेय ने धुन्‍धुमार की कथा प्रारम्‍भ की । मार्कण्‍डेयजी बोले-राजा युधिष्ठिर । सुनो । धुन्‍धु मार का आख्‍यान धर्म मयी है। अब इसका वर्णन करता हूं, ध्‍यान देकर सुनो । महाराज । इक्ष्‍वाकुवंशी राजा कुवलाश्रव जिस प्रकार धुन्‍धुमार नाम से विख्‍यात हुए, वह सब श्रवण करो ।।10।। भरतनन्‍दन । कुरुकुलरत्‍न । महर्षि उत्तकड़ का नाम बहुत प्रसिद्ध है। तात। मरु के रमणीय प्रदेश में उनका आश्रम है । महाराज् प्रभावशाली उत्तकड़ ने भगवान विष्‍णु की आराधना की इच्‍छा से बहुत वर्षो तक अत्‍यनत दुष्‍कर तपस्‍या की थी । उनकी तपस्‍या से प्रसन्‍न होकर भगवान ने उन्‍हें प्रत्‍यक्ष दर्शन दिया। उनका दर्शन पाते ही महर्षि नम्रता से झुक गये और नाना प्रकार के स्‍तोत्रों द्वारा उनकी स्‍तुति करने लगे । उत्तडक बोले – देवी । देवता, असुर, मनुष्‍य आदि सारी प्रजा आप से ही उत्‍पन्न हुई है। समस्‍त स्‍थावर-जगड़म प्राणियों की सुष्टि भी आपने ही की है । महातेजस्‍वी परमेश्‍वर । ब्रह्म, वेद और जानने योग्‍य सभी वस्‍तुएं आपने ही उत्‍पन्न की हैं। देव । आकाश आपका मस्‍तक है । चन्‍द्रमा और सूर्य नेत्र हैं। वायु श्रवास है तथा अग्‍नि आपका तेज है । अच्‍युत। सम्‍पूर्ण दिशाएं आपकी भुजाएं और महासागर आपका कुक्षि स्‍थान है। देव। मधुसूदन। पर्वत आपके उरु और अन्‍तरिक्ष लोक आपकी नाभि है। पृथ्‍वी देवी आपके चरण तथा ओषधियां रोएं हैं । भगवन् । इन्‍द्र, सोम, अग्‍नि, वरुण देवता, असुर और बड़े-बड़े नाग ये सब आपके सामने नतमस्‍तक हो, नाना प्रकार के स्‍तोत्र पढ़कर आपकी स्‍तुति करते हुए आपको हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं । भुवनेश्रवर । आपने सम्‍पूर्ण भूतों को व्‍याप्‍त कर रखा है। महान् शक्तिशाली योगी और महर्षि आपका स्‍तवन करते हैं । पुरुषोत्तम । आपके संतुष्‍ट होने पर ही संसार स्‍वस्‍थ एवं सुखी होता है और आपके कुपित होने पर इसे महान् भ्‍य का सामना करना पड़ता है। एकमात्र आप ही सम्‍पूर्ण भय का निवारण करने वाले हैं ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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