महाभारत शल्य पर्व अध्याय 31 श्लोक 55-73

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:१८, २९ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "भगवान् " to "भगवान ")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

एकत्रिंश (31) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 55-73 का हिन्दी अनुवाद

युधिष्ठिर बोले-नरेश्वर ! तुम जल में स्थित होकर आर्त पुरुषों के समान प्रलाप न करो। तात ! चिडि़यों के चहचहाने के समान तुम्हारी यह बात मेरे मन में कोई अर्थ नहीं रखती है । सुयोधन ! यदि तुम इसे देने में समर्थ होते तो भी मैं तुम्हारी दी हुई इस पृथ्वी पर शासन करने की इच्छा नहीं रखता । राजन् ! तुम्हारी दी हुई इस भूमि को मैं अधर्मपूर्वक नहीं ले सकता; क्षत्रिय के लिये दान लेना धर्म नहीं बताया गया है । तुम्हारे देने पर इस सम्पूर्ण पृथ्वी को भी मैं नहीं लेना चाहता। तुम्हें युद्ध में परास्त करके ही इस वसुधा का उपभोग करूंगा । अब तो तुम स्वयं ही इस पृथ्वी के स्वामी नहीं रहे; फिर इसका दान कैसे करना चाहते हो ? राजन् ! जब हम लोग कुल में शान्ति बनाये रखने के लिये पहले धर्म के अनुसार अपना ही राज्य मांग रहे थे, उसी समय तुमने हमें यह पृथ्वी क्यों नहीं दे दी । नरेश्वर ! पहले महाबली भगवान श्रीकृष्ण को हमारे लिये राज्य देने से इन्कार करके इस समय क्यों दे रहे हो ? तुम्हारे चित्त में यह कैसा भ्रम छा रहा है ? जो शत्रुओं से आक्रान्त हो, ऐसा कौन राजा किसी को भूमि देने की इच्छा करेगा ? कौरवनन्दन नरेश ! अब न तो तुम किसी को पृथ्वी दे सकते हो और न बलपूर्वक उसे छीन ही सकते हो। ऐसी दशा में तुम्हें भूमि देने की इच्छा कैसे हो गयी ? ।। मुझे संग्राम में जीत कर इस पृथ्वी का पालन करो। भारत ! पहले तो तुम सूई की नोक से जितना छिद सके, भूमि का उतना सा भाग भी मुझे नहीं दे रहे थे। प्रजानाथ ! फिर आज यह सारी पृथ्वी कैसे दे रहे हो ? पहले तो तुम सूई की नोक बराबर भी भूमि नहीं छोड़ रहे थे, अब सारी पृथ्वी कैसे त्याग रहे हो ? इस प्रकार ऐश्वर्य पाकर इस वसुधा का शासन करके कौन मूर्ख शत्रु के हाथ में अपनी भूमि देना चाहेगा ? तुम तो केवल मूर्खतावश विवेक खो बैठे हो; इसीलिये यह नहीं समझते कि आज भूमि देने की इच्छा करने पर भी तुम्हें अपने जीवन से हाथ धोना पड़ेगा । या तो हम लोगों को परास्त करके तुम्हीं इस पृथ्वी का शासन करो या हमारे हाथों मारे जाकर परम उत्तम लोकों में चले जाओ। राजन् ! मेरे और तुम्हारे दोनों के जीते-जी हमारी विजय के विषय में समस्त प्राणियों को संदेह बना रहेगा। दुर्मते ! इस समय तुम्हारा जीवन मेरे हाथ में है। मैं इच्छानुसार तुम्हें जीवन दान दे सकता हूं; परंतु तुम स्वेच्छा पूर्वक जीवित रहने में समर्थ नहीं हो । याद है न, तुमने हम लोगों को जला डालने के लिये विशेष प्रयत्न किया था। भीम को विषधर सर्पो से डसवाया, विष खिलाकर उन्हें पानी में डुबाया, हम लोगों का राज्य छीन कर हमें अपने कपट जाल का शिकार बनाया, द्रौपदी को कटु वचन सुनाये और उसके केश खींचे। पापी ! इन सब कारणों से तुम्हारा जीवन नष्ट सा हो चुका है। उठो-उठो, युद्ध करो; इसी से तुम्हारा कल्याण होगा । नरेश्वर ! वे विजयी वीर पाण्डव इस प्रकार वहां बारम्बार नाना प्रकार की बातें कहने लगे ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में दुर्योधन-युधिष्ठिर संवाद विषयक इकतीसवां अध्याय पूरा हुआ ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।