महाभारत शल्य पर्व अध्याय 42 श्लोक 1-18

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द्विचत्वारिंश (42) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: द्विचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

वसिष्ठा पवाह तीर्थ की उत्पत्ति के प्रसंग में विश्वामित्र का क्रोध और वसिष्ठजी की सहनशीलता

जनमेजय ने पूछा-प्रभो ! वसिष्ठा पवाह तीर्थ में सरस्वती के जल का भकंकर वेग कैसे हुआ ? सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती ने उन महर्षि को किस लिये बहाया ? उनके साथ उसका वैर कैसे हुआ ? उस वैर का कारण क्या है ? महामते ! मैंने जो पूछा है, वह बताइये। मैं आपके वचनों को सुनते सुनते तृप्त नहीं होता हूं । वैशम्पायनजी ने कहा- भारत ! तपस्या में होड़ लग जाने के कारण विश्वामित्र तथा ब्रह्मर्षि वसिष्ठ में बड़ा भारी वैर हो गया था । सरस्वती के स्थाणु तीर्थ में पूर्व तट पर वसिष्ठ का बहुत बड़ा आश्रम था और पश्चिम तट पर बुद्धिमान विश्वामित्र मुनि का आश्रम बना हुआ था । महाराज ! जहां भगवान स्थाणु ने बड़ी भारी तपस्या की थी, वहां मनीषी पुरुष उन के घोर तप का वर्णन करते हैं । प्रभो ! जहां भगवान स्थाणु ( शिव ) ने सरस्वती का पूजन और यज्ञ करके तीर्थ की स्थापना की थी, वहां वह तीर्थ स्थाणु तीर्थ मे नाम से विख्यात हुआ । नरेश्वर ! उसी तीर्थ में देवताओं ने देव शत्रुओं का विनाश करने वाले स्कन्द को महान् सेनापति के पद पर अभिषिक्त किया था । उसी सारस्वत तीर्थ में महामुनि विश्वामित्र ने अपनी उग्र तास्या से वसिष्ठ मुनि को विचलित कर दिया था। वह प्रसंग सुनाता हूं, सुनो । भारत ! विश्वामित्र और वसिष्ठ दोनों ही तपस्या के धनी थे, वे प्रतिदिन होड़ लगा कर अत्यन्त कठोर तप किया करते थे । उन में भी महामुनि विश्वामित्र को ही अधिक संताप होता था, वे वसिष्ठ का तेज देख कर चिन्तामग्न हो गये थे । भरतनन्दन ! सदा धर्म में तत्पर रहने वाले विश्वामित्र मुनि के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि यह सरस्वती तपोधन वसिष्ठ को उपने जल के वेग से तुरंत ही मेरे समीप ला देगी और यहां आ जाने पर तपस्वी मुनियों में श्रेष्ठ विप्रवर वसिष्ठ का मैं वध कर डालूंगा; इसमें संशय नहीं है । ऐसा निश्चय करके पूज्य महामुनि विश्वामित्र के नेत्र क्रोध से रक्त-वर्ण हो गये। उन्होंने सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती का स्मरण किया । उन मुनि के चिन्तन करने पर विचारशीला सरस्वती व्याकुल हो उठी । उसे ज्ञात हो गया कि ये महान् शक्तिशाली महर्षि इस समय बड़े भारी क्रोध से भरे हुए हैं । इससे सरस्वती की कान्ति फीकी पड़ गयी और वह हाथ जोड़ थर-थर कांपती हुई मुनिवर विश्वामित्र की सेवा में उपस्थित हुई । जिसका पति मारा गया हो उस विधवा नारी के समान वह अत्यन्त दुखी हो गयी और उन मुनि श्रेष्ठ से बोली-‘प्रभो ! बताइये, मैं आपकी किस आज्ञा का पालन करूं ?’ तब कुपित हुए मुनि ने उससे कहा-‘वसिष्ठ को शीघ्र यहां बहाकर ले आओ, जिससे आज मैं इनका वध कर डालूं।’ यह सुन कर सरस्वती नदी व्यथित हो उठी । वह कमल नयना अबला हाथ जोड़ कर वायु के झकोरे से हिलायी गयी लता के समान अत्यन्त भयभीत हो जोर-जोर से कांपने लगी ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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