महाभारत शल्य पर्व अध्याय 51 श्लोक 18-40

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एकपन्चाशत्तम (51) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: एकपन्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 18-40 का हिन्दी अनुवाद

‘महाभागे ! तुम पूर्वकाल में ब्रह्माजी के सरोवर से प्रकट हुई हो। सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती ! कठोर व्रत का पालन करने वाले मुनि तुम्हारी महिमा को जानते हैं प्रियदर्शने ! तुम सदा मेरा भी प्रिय करती रही हो; अतः वरवर्णिनि ! तुम्हारा यह लोकभावन महान् पुत्र तुम्हारे ही नाम पर ‘सारस्वत’ कहलायेगा । ‘यह सारस्वत नाम से विख्यात महातपस्वी होगा। महाभागे ! इस संसार में बारह वर्षो तक जब वर्षा बंद हो जायगी, उस समय यह सारस्वत ही श्रेष्ठ ब्राह्मणों को वेद पढ़ायेगा । ‘शुभे ! महासौभाग्यशालिनी सरस्वति ! तुम मेरे प्रसाद से अन्य पवित्र सरिताओं की अपेक्षा सदा ही अधिक पवित्र बनी रहोगी’। भरतश्रेष्ठ ! इस प्रकार उनके द्वारा प्रशंसित हो वर पाकर वह महा नदी पुत्र को लेकर प्रसन्नतापूर्वक चली गयी । इसी समय देवताओं और दानवों में विरोध होने पर इन्द्र अस्त्र-शस्त्रों की खोज के लिये तीनों लोकों में विचरण करने लगे । परंतु भगवान शक्र उस समय ऐसा कोई हथियार न पा सके, जो उन देवद्रोहियों के वध के लिये उपयोगी हो सके । तदनन्तर इन्द्र ने देवताओं से कहा-‘दधीच मुनि की अस्थियों के सिवा और किसी अस्त्र-शस्त्र से मेरे द्वारा देवद्रोही महान् असुर नहीं मारे जा सकते । ‘अतः सुरश्रेष्ठगण ! तुम लोग जाकर मुनिवर दधीच से याचना करो कि आप अपनी हडिडयां हमें दे दें। हम उन्हीं के द्वारा अपने शत्रुओं का वध करेंगे’ । कुरुश्रेष्ठ ! देवताओं के द्वारा प्रयत्नपूर्वक अस्थियों के लिये याचना की जाने पर मुनिवर दधीच ने बिना कोई विचार किये अपने प्राणों का परित्याग कर दिया। उस समय देवताओं का प्रिय करने के कारण वे अक्षय लोकों में चले गये । तब इन्द्र ने प्रसन्नचित्त होकर दधीच की हडिडयों से गदा, वज्र, चक्र और बहुसंख्यक भारी दण्ड आदि नाना प्रकार के दिव्य आयुध तैयार कराये । ब्रह्माजी के पुत्र महर्षि भृगुने तीव्र तपस्या से भरे हुए लोक मंगलकारी विशालकाय एवं तेजस्वी दधीच को उत्पन्न किया था। ऐसा जान पड़ता था, मानो सम्पूर्ण जगत् के सारतत्व से उनका निर्माण किया गया हो । वे पर्वत के समान भारी और ऊंचे थे। अपनी महत्ता के लिये वे सामथ्र्यशाली मुनि सर्वत्र विख्यात थे। पाकशासन इन्द्र उनके तेज से सदा उद्विग्न रहते थे । भरतनन्दन ! ब्रह्म तेज से प्रकट हुए उस वज्र को मन्त्रोच्चारण के साथ अत्यन्त क्रोधपूर्वक छोड़कर भगवान इन्द्र ने आठ सौ दस दैत्य-दानव वीरों का वध कर डाला । राजन् ! तदनन्तर सुदीर्घ काल व्यतीत होने पर जगत् में बारह वर्षो तक स्थिर रहने वाली अत्यन्त भयंकर अनावृष्टि प्राप्त हुई । नरेश्वर ! बारह वर्षो की उस अनावृष्टि में सब महर्षि भूख से पीडि़त हो जीविका के लिये सम्पूर्ण दिशाओं में दौड़ने लगे । सम्पूर्ण दिशाओं से भागकर इधर-उधर जाते हुए उन महर्षियों को देखकर सारस्वत मुनि ने भी वहां से अन्यत्र जाने का विचार किया। तब सरस्वती देवी ने उनसे कहा । भरतनन्दन ! सरस्वती इस प्रकार बोली-‘बेटा ! तुम्हें यहां से कहीं नहीं जाना चाहिये। मैं सदा तुम्हें भोजन के लिये उत्तमोत्तम मछलियां दूगी; अतः तुम यहीं रहो’ । सरस्वती के ऐसा कहने पर सारस्वत मुनि वहीं रहकर देवताओं और पितरों को तृप्त करने लगे। वे प्रतिदिन भोजन करते और अपने प्राणों तथा वेदों की रक्षा करते थे ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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