महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 289 श्लोक 15-32
एकोननवत्यधिकद्विशततम (289) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महायोगी महात्मा भगवान शिव के उस रोष को समझकर वे उनसे दूर हट गये थे, योगसिद्ध उशना, गमन, आगमन और स्थान को जानते थे। अर्थात कब हटना चाहिये, कब आना चाहिये, तथा किस अवस्था में कहीं अन्यत्र न जाकर अपने स्थान पर ही ठहरे रहना चाहिये। इन सब बातों को वे अच्छी तरह समझते थे । योगसिद्धात्मा उशना अपनी उग्र तपस्या द्वारा महात्मा महेश्वर का चिन्तन करके उनके त्रिशूल के अग्रभाग में दिखायी दिये । तप:सिद्ध शुक्राचार्यको उस रूप में पहचानकर देवेश्वर शिव ने उन्हें शूलपर स्थित जानकर अपने धनुषयुक्त हाथ से उस शूल को झुका दिया । जब अमित तेजस्वी शूल उनके हाथ से मुड़कर धनुष के रूप में परिणत हो गया, तब उग्र धनुर्धर भगवान शिव ने पाणि से आनत होने के कारण उस शूल को 'पिनाक' कहा । उसके मुड़ने के साथ ही भृ्गुपुत्र उशना उनके हाथ में आ गये, उशना को हाथ में आया देख देवेश्वर उमावल्लभ भगवान शिव ने मुँह फैला लिया और धीरे से हाथ का धक्का देकर उशना को मुख के भीतर डाल दिया । महोदव जी के पेट में घुसकर प्रभावशाली महामना भृगुनन्दन उशना उसके भीतर सब ओर विचरने लगे । युधिष्ठिर ने पूछा- राजन ! महातेजस्वी उशना ने बुद्धिमान देवाधिदेव महादेवजी के उदर में किसलिये विचरण किया और वहाँ क्या किया ? भीष्म जी ने कहा- नरेश्वर ! प्राचीनकाल में महान व्रतधारी महादेवजी जल के भीतर ठूँठे काठ की भाँति स्थिर भाव से खड़े हो लाखों-अरबों वर्षों तक तपस्या करते रहे । वह दुष्कर तपस्या पूरी करके जब वे जल के उस महान सरोवर से बाहर निकले, तब देवदेव ब्रह्माजी उनके पास गये । अविनाशी ब्रह्माजी ने उनकी तपोवृद्धि का कुशल समाचार पूछा। तब भगवान वृषभध्वज ने यह बताया कि 'मेरी तपस्या भलीभाँति सम्पन्न हो गयी' । तत्पश्चात परम बुद्धिमान, अचिन्त्यस्वरूप और सदा सत्यधर्मपरायण महादेवजी ने अपनी तपस्या के सम्पर्क से उशना की तपस्या में भी वृद्धि हुई देखी । महाराज ! महायोगी उशना उस तपस्यारूप धन से सम्पन्न एवं शक्तिशाली हो तीनों लोकों में प्रकाशित होने लगे । तदनन्तर पिनाकधारी योगी महादेव ने ध्यान लगाया। उस समय उशना अत्यन्त उद्विग्न हो उनके उदर में ही विलीन होने लगे । महायोगी उशना ने वहीं रहकर महादेवजी की स्तुति की। वे निकलने का मार्ग चाहते थे; परंतु महादेव जी उनकी गति को प्रतिहत कर देते थे । शत्रुदमन नरेश ! तब उदर में ही रहकर महामुनि उशना ने महादेवी से बारंबार प्रार्थना की - 'प्रभो ! मुझ पर कृपा कीजिये ' । तब महादेवजी ने उनसे कहा- 'शिश्न के मार्ग से ही तुम्हारा उद्धार हो, अत: उसी से निकलो' ऐसा कहकर देवेश्वर शिव ने अन्य सारे द्वार रोक दिये । सब ओर से घिरे हए मुनिवर उशना उस शिश्न द्वार को देख नहीं पाते थे। अत: भगवान शंकर के तेज से दग्ध होते हुए वे उदर में ही इधर-उधर चक्कर काटने लगे । तत्पश्चात वे शिश्न के द्वार से निकलकर सहसा बाहर आ गये। उस द्वार से निकलने के कारण उनका नाम शुक्र (वीर्य) हो गया। यही कारण है जिससे वे आकाश के बीच से होकर नहीं निकलते ।
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