महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 289 श्लोक 1-14
एकोननवत्यधिकद्विशततम (289) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
भृगुपूत्र उशना का चरित्र और उन्हें शुक्र नाम की प्राप्ति
युधिष्ठिर ने पूछा- तात ! कुरूकुल के पितामह ! मेरे हृदय में चिरकाल से यह एक कौतूहलपूर्ण प्रश्न खड़ा है, जिसका समाधान मैं आपके मुख से सुनना चाहता हूँ । परम बुद्धिमान कवित्वसम्पन्न देवर्षि उशना क्यों सदा ही असुरों का प्रिय तथा देवताओं का अप्रिय करने में लगे रहते हैं ? उन्होंने अमित तेजस्वी दानवों का तेज किसलिये बढाया ? दानव तो सदा श्रेष्ठ देवताओं के साथ वैर ही बाँधे रहते हैं । देवोपम तेजस्वी मुनिवर उशना का नाम शुक्र क्यों हो गया ? उन्हें ॠद्धि कैसे प्राप्त हुई ? यह सब मुझे बताइये । पितामह ! देवर्षि उशना हैं तो बड़े तेजस्वी; परंतु वे आकाश के बीच से होकर क्यों नही जाते ? इन सब बातों को मैं पूर्णरूप से जानना चाहता हूँ । भीष्म जी ने कहा - निष्पाप नरेश ! मैंने इन सब बातों को पहले जिस तरह सुन रखा है, वह सारा वृतान्त अपनी बुद्धि के अनुसार यथार्थरूप से बता रहा हूँ, तुम ध्यान पूर्वक सुनों । ये भृगुपुत्र मुनिवर उशना सबके लिये माननीय तथा दृढतापुर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले हैं। एक विशेष कारण बन जाने से रूष्ट होकर ये देवताओं के विरोधी हो गये[१]। उस समय इन्द्र तीनों लोकों के अधीश्वर थे और सदा यक्षों तथा राक्षसों के अधिपति प्रभावशाली जगत्पति राजा कुबेर उनके कोषाध्यक्ष बनाये गये थे । योगसिद्ध महामुनि उशना ने योगबल से धनाध्यक्ष कुबेर के भीतर प्रवेश करके उन्हें अपने काबू में कर लिया और उनके सारे धन का अपहरण कर लिया । धन का अपहरण हो जाने पर कुबेर को चैन नहीं पड़ा । वे कुपित और उद्विग्न होकर देवेश्वर महादेव जी के पास गये । उस समय उन्होंने अमित तेजस्वी अनेक रूपधारी सौम्य एवं शिवस्वरूप देवेश्वर रूद्र से इस प्रकार निवेदन किया । 'प्रभो ! महर्षि उशना योगबल से सम्पन्न हैं। उन्होंने अपनी शक्ति से मुझे बंदी बनाकर मेरा सारा धन हर लिया। वे महान तपस्वी तो हैं ही, योगबल से मुझे अपने अधीन करके अपना काम बनाकर निकल गये' । राजन ! यह सुनकर महायोगी महेश्वर कुपित हो गये और लाल आँखें किये हाथ में त्रिशुल लेकर खड़े हो गये । उस उत्तम अस्त्र को लेकर वे सहसा बोल उठे- 'कहाँ है, कहाँ है वह उशना ?' महादेवजी क्या करना चाहते हैं, यह जानकर उशना उनसे दूर हो गये ।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कहते हैं, किसी समय असुरगण देवताओं को कष्ट पहुँचाकर भृगुपत्नी के आश्रम में जाकर छिप जाते थे। असुरों ने 'माता' कहकर उनकी शरण ली थी और उन्होंने पुत्र मानकर उन सब को निर्भय कर दिया था। देवता जब असुरों को दण्ड देने के लिये उनका पीछा करते हुए आते, तब भृगु पत्नी के प्रभाव से उनके आश्रम में प्रवेश नहीं कर पाते थे। यह देख समस्त देवताओं ने भगवान विष्णु की शरण ली । भुवनपालक भगवान विष्णु ने देवताओं और दैवी-सम्पत्ति की रक्षा के लिये चक्र उठाया, तथा असुरों एवं असुर भाव के उत्थान में योग देनेवाली भृगुपत्नी का सिर काट लिया। उस समय मरने से बचे हुए असुर भृगुपुत्र उशना की शरण में गये। उशना माता के वध से खिन्न थे; इसलिये उन्होंने असुरों को अभयदान दे दिया। तभी वे देवताओं की उन्नति के मार्ग में असुरों द्वारा बाधाएँ खड़ी करते रहते हैं ।