महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 59 श्लोक 100-119

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एकोनषष्टित्तम (59) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व : एकोनषष्टित्तम अध्याय: श्लोक 100-119 का हिन्दी अनुवाद

राजन्! नरश्रेष्ठ वेनकुमार को सारी दण्डनीति का स्वतः ज्ञान हो गया। तब उन्होंने हाथ जोड़कर उन महर्षियों से कहा-’महात्माओं ! धर्मं और अर्थ का दर्शन कराने वाली अत्यन्त सूक्ष्म बुद्धि मुझे स्वतः प्राप्त हो गयी हैं। मुझे इस बुद्धि के द्वारा आप लोगों की कौन-सी सेवा करनी हैं, यह मुझे यथार्थ रुप से बताइये’। ’आप लोग मुझे जिस किसी भी प्रयोजनपूर्ण कार्य के लिये आज्ञा देंगे, उसे मैं अवश्य पूरा करूँगा। इसमें कोई अन्यंथा विचार नहीं करना चाहिये’। तब वहाँ देवताओं और उन महर्षियों ने उनसे कहा-’वेननन्दन ! जिस कार्यं में नियमपूर्वक धर्मं की सिद्धि होती हो, उसे निर्भय होकर करो’। ’प्रिय और अप्रिय का विचार छोड़कर काम, क्रोध, लोभ और मान को दूर हटाकर समस्त प्राणियों के प्रति समभाव रखो। ’लोक में जो कोई भी मनुष्य धर्मं से विचलित हो, उसे सनातन धर्मपर दृष्टि ंरखते हुए अपने बाहुबल से परास्त करके दण्ड़ दो’। ’साथ ही यह प्रतिज्ञा करो कि ’मैं मन, वाणी और क्रिया द्वारा भूतलवर्ती ब्रह्य (वेद) का निरन्तर पालन करूँगा’। ’वेद में दण्ड़नीति से सम्बन्ध रखने वाला जो नित्य धर्मं बताया गया हैं, उसका मैं निःशंक होकर पालन करूँगा। कभी स्वच्छन्द नहीं होऊँगा’। राजा वेन के बाहु मन्थन से महाराज पृथु का प्राकटय ’परंतप प्रभो ! साथ ही यह प्रतिज्ञा करो कि ’ब्राह्मण’ मेरे लिये अदण्डनीय होंगे तथा मैं सम्पूर्ण जगत् को वर्णसंकरता और धर्मंसंकरता से बचाऊँगा’। तब वेनकुमार ने उन देवताओं तथा उन अग्रवर्ती ऋषियों से कहा-’नरश्रेष्ठ महात्माओ ! महाभाग ब्राह्मण मेरे लिये सदा वन्दनीय होंगे’। उनके ऐसा कहने पर उन वेदवादी महर्षियों ने उनसे इस प्रकार कहा, ’एवमस्तु’। फिर शुक्राचार्य उनके पुरोहित हुए, जो वैदिक ज्ञान के भण्ड़ार हैं। वालखिल्यगण तथा सरस्वती तटवर्ती महर्षिंयो के समुदाय ने उनके मन्त्री का कार्य सँभाला। महर्षि भगवान गर्ग उनके दरबार के ज्योतिषी हुए। मनुष्यों में यह लोकोक्ति प्रसिद्ध हैं कि स्वयं राजा पृथु भगवान विष्णु से आठवीं पीढ़ी में थे[१]। उनके जन्म से पहले ही सूत और मागध नामक दो बन्दी (स्तुतिपाठक) उत्पन्न हुए थे। वेन के पुत्र प्रतापी राजा पृथु ने उन दोनों को प्रसन्न होकर पुरस्कार दिया। सूत को अनूप देश (सागरतटवर्ती प्रान्त) और मागध को मगध देश प्रदान किया। सुना जाता हैं कि पृथु के समय यह पृथ्वी बहुत ऊँची-नीची थी। उन्होंने ही इसे भलीभाँति समतल बनाया था। महाराज! सभी मन्वन्तरों में यह पृथ्वी ऊँची-नीची हो जाती हैं; उस समय वेनकुमार पृथु ने धनुष की कोटिद्वारा चारों ओर से शिलासमूहों को उखाड़ डाला और उन्हें एक स्थान पर संचित कर दिया; इसीलिये पर्वतों की लम्बाई, चैड़ाई और ऊँचाई बढ़ गयी। भगवान विष्णु, देवताओं सहित इन्द्र, ऋषि समूह, प्रजापतिगण तथा ब्राह्मणों ने पृथु का राजा के पद पर अभिषेक किया। पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर! उस समय साक्षात् पृथ्वी देवी रत्नों की भेंट लेकर उनकी सेवा में उपस्थित हुई थी। सरिताओं के स्वामी समुंद्र्र, पर्वतों में श्रेष्ठ हिमवान् तथा देवराज इन्द्र ने अक्षय धन समर्पित किया। सुवर्णमय पर्वत महामेरू ने स्वयं आकर उन्हें सुवर्ण की राशि भेंट की। मनुष्यों पर सवारी करने वाले यक्षराक्षसराज भगवान कुबेर ने भी उन्हें इतना धन दिया, जो उनके धर्मं, अर्थ और काम का निर्वाह करने के लिये पर्याप्त हो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1-विष्णु, 2- विरजा, 3-कीर्तिमान, 4- कर्दम, 5-अनंग, 6- अतिबल, 7-वेन, 8-पृथु। इस प्रकार गणना करने पर राजा पृथु भगवान विष्णु से आठवीं पीढी से ज्ञात होते है।

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