महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 31

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अष्टात्रिंश (38) अध्‍याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 31 का हिन्दी अनुवाद

उनमें कितनी बहुमूल्य सामग्रियाँ लगी हैं। इसका अनुमान लगाना असम्भव है। उस विशाल भवन के भीतर सुन्दर-सुन्दर महल और अट्टालिकाएँ बनी हुई हैं। वह प्रासाद जगत के सभी पर्वतीय द्श्यों सेयुक्त है। श्रीकृष्ण, बलराम और इन्द्र ने उस द्वारका को देखा। महाबाहु विश्वकर्मा ने इन्द्र की प्रेरणा से भगवान पद्मनाभ के लिये जिस मनोहर प्रासाद का निर्माण किया है, उसका विसतार सब ओर से एक-एक योजन का है। उसके ऊँचे शिखर पर सुवर्ण मढ़ा गया है, जिससे वह मेरु पर्वत के उत्तुंग शृंग की शोभा धारण कर रहा है। वह प्रामाद महात्मा विश्वकर्मा ने महारानी रुक्मिणी के रहने के लिये बनाया है। यह उनका सर्वोत्तम निवास है। श्रीकृष्ण की दूसरी पटरानी सत्यभामा सदा श्वेत रंग के प्रासाद में निवास करती हैं, जिसमें विचित्र मणियों के सोपान बनाये गये हैं। उसमें प्रवेश करने पर लोगों को (ग्रीष्म ऋतु में भी) शीतलता का अनुभव होता है। निर्मल सूर्य के समान तेजस्विनी पताकाएँ उस मनोरम प्रसाद की शोभा बढ़ाती हैं। एक सुन्दर उद्यान में उस भवन का निर्माण किया गया है। उसके चारों और ऊँची-ऊँची ध्वजाएँ फहराती हैं। इसके सिवा वह प्रमुख प्रसाद, जो रुक्मिणी तथा सत्याभामा के महलों के बीच में पड़ता है और जिसकी उज्जवल प्रभा सब ओर फैली रहती है, जाम्बवती देवी द्वारा विभूषित किया गया है। वह अपनी दिव्य प्रभा औरविचित्र सजावट से मानो तीनों लोकों को प्रकाशित कर रहा है। उसे भी विश्वकर्मा ने ही बनाया है। जाम्बवती का वह विशाल भवन कैलाश शिखर के समान सुशोभित होता है। जिसका दरवाजा जाम्बूनद सुवर्ण के समान उद्दीप्त होता है, जो देखने में प्रज्वलित अग्रि के समान जान पड़ता है। विशालता में समुद्र से जिसकी उपमा दी जाती है, जो मेरु के नाम से विख्यात है, उस महान् प्रासाद में गान्धाराज की कुलीन कन्या सुकेशी को भगवान श्रीकृष्ण ने ठहराया है। महाबाहो! पद्मकूट नाम से विश्यात जो कमल के समान कान्ति वाला प्रसाद है, वह महारानी सुप्रभा का परम पूजित निवास स्थान है। कुरुश्रेष्ठ! जिस उत्तम प्रासाद की प्रभा सूर्य के समान है, उसे शांर्गधन्वा श्रीकृष्ण ने महारानी लक्ष्मणा को दे रखा है। भारत! वैदूर्यमणि के समान कान्तिमान हरे रंग का महल, जिसे देखकर सब प्राणियों को ‘श्रीहरि’ ही हैं, ऐसा अनुभव होता है, वह मित्रविन्दा का निवास स्थान है। उसकी देवगण भी सराहना करते हैं। भगवान वासुदेव की रानी मित्रविन्दा का यह भवन अन्य सब महलों का आभूषणरूप हैं। युधिष्ठिर! द्वारका में जो दूसरा प्रमुख प्रासाद है, उसे सम्पूर्ण शिल्पियों ने मिलकर बनाया है। वह अत्यन्त रमणीय भवन हँसता सा खड़ा है। सभी शिल्पी उसके निर्माण कौशल की सराहना करते हैं। उस प्रासाद का नाम है केतुमान। वह भगवान वासुदेव की महारानी सुदत्तादेवी का सुन्दर निवास स्थान है। वहीं ‘बिरज’ नास से प्रसिद्ध एक प्रासाद है, जो निर्मल एवं राजेगुण के प्रभाव से शून्य है। वह परामात्मा श्रीकृष्ण का उपस्थानगृह (खास रहने का स्थान) है। इसी प्रकार वहाँ एक और भी प्रमुख प्रासाद है, जिसे स्वयं विश्वकर्मा ने बनाया है। उसकी लंबाई-चौड़ाई एक-एक योजन की है। भगवान का वह भवन सब प्रकार के रत्नों द्वारा निर्मित हुआ है। वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण के सुन्दर सदन में जो मार्गदर्शक ध्वज है, उन सबके दण्ड सुवर्णमय बनाये गये हैं। उन सब पर पताकाएँ फहराती रहती हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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