श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 30 श्लोक 11-22

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दशम स्कन्ध: त्रिंशोऽध्यायः (30) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिंशोऽध्यायः श्लोक 11-22 का हिन्दी अनुवाद

‘अरी सखी! हरिनियो! हमारे श्यामसुन्दर के अंग-संग से सुषमा-सौन्दर्य की धारा बहती रहती है, वे कहीं अपनी प्राणप्रिया के साथ तुम्हारे नयनों को परमानन्द का दान करते हुए इधर से ही तो नहीं गये हैं ? देखो, देखो; यहाँ कुलपति श्रीकृष्ण की कुन्दकली की माला की मनोहर गन्ध आ रही है, जो उनकी परम प्रेयसी के अंग-संग से लगे हुए कुच-कुंकुम से अनुरंजित रहती है’ ‘तरुवारों! उनकी माला की तुलसी में ऐसी सुगन्ध है कि उसकी गन्ध के लोभी मतवाले भौंरे प्रत्येक क्षण उस पर मँडराते रहते हैं। उनके एक हाथ में लीलाकमल होगा और दूसरा हाथ अपनी प्रेयसी के कंधे पर रखे होंगे। हमारे प्यारे श्यामसुन्दर इधर से विचरते हुए अवश्य गये होंगे। जान पड़ता है, तुमलोग उन्हें प्रणाम करने के लिये ही झुके हो। परन्तु उन्होंने अपनी प्रेमभरी चितवन से भी तुम्हारी वन्दना का अभिनन्दन किया है या नहीं ?’। ‘अरी सखी! इन लताओं से पूछो। ये अपने पति वृक्षों को भुजपाश में बाँधकर आलिंगन किये हुए हैं, इससे क्या हुआ ? इनके शरीर में जो पुलक है, रोमांच है, वह तो भगवान के नखों के स्पर्श से ही है। अहो! इनका कैसा सौभाग्य है ?’

परीक्षित्! इस प्रकार मतवाली गोपियाँ प्रलाप करती हुई भगवान श्रीकृष्ण को ढूंढ़ते-ढूंढ़ते कातर हो रही थीं। अब और भी गाढ़ आवेश हो जाने के कारण वे भगवन्मय होकर भगवान की विभिन्न लीलाओं का अनुकरण करने लगीं । एक पूतना बन गयी, तो दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसका स्तन पीने लगीं। कोई छकड़ा बन गयीं, तो किसी ने बालकृष्ण बनकर रोते हुए उसे पैर की ठोकर मारकर उलट दिया । कोई सखी बालकृष्ण बनकर बैठ गयी तो कोई तृणावर्त दैत्य का रूप धारण कर उसे हर ले गयी। कोई गोपी पाँव घसीट-घसीटकर घुटनों के बल बकैयाँ चलने लगी और उस समय उसके पायजेब रुनझुन-रुनझुन बोलने लगे । एक बनी कृष्ण, तो दूसरी बनी बलराम, और बहुत-सी गोपियाँ ग्वालबालों के रूप में हो गयीं। एक गोपी बन गयी वत्सासुर, तो दूसरी बनी बकासुर। तब तो गोपियों ने अलग-अलग श्रीकृष्ण बनकर वत्सासुर और बकासुर बनी हुई गोपियों को मारने की लीला की । जैसे श्रीकृष्ण वन में करते थे, वैसे ही एक गोपी बाँसुरी बजा-बजाकर दूर गये हुए पशुओं को बुलाने का खेल-खेलने लगी। तब दूसरी गोपियाँ ‘वाह-वाह’ करके उसकी प्रशंसा करने लगीं । एक गोपी अपने को श्रीकृष्ण समझकर दूसरी सखी के गले में बाँह डालकर चलती और गोपियों से कहने लगती—‘मित्रों! मैं श्रीकृष्ण हूँ। तुम लोग मेरी यह मनोहर चाल देखो’ । कोई गोपी श्रीकृष्ण बनकर कहती—‘ अरे व्रजवासियों! तुम आँधी-पानी से मत डरो। मैंने उससे बचने का उपाय निकाल लिया है।’ ऐसा कहकर गोवर्धन उठाकर ऊपर तान लेती । परीक्षित्! एक गोपी बनी कालिय नाग, तो दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसके सिरपर पैर रखकर चढ़ी-चढ़ी बोलने लगी—‘रे दुष्ट साँप! तू यहाँ से चला जा। मैं दुष्टों का दमन करने के लिये ही उत्पन्न हुआ हूँ’ । इतने में ही एक गोपी बोली—‘अरे ग्वालों! देखो, वन में बड़ी भयंकर आग लगी है। तुमलोग जल्दी-से-जल्दी अपनी आँखें मूँद लो, मैं अनायास ही तुमलोगों की रक्षा कर लूँगा’ ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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