श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 71 श्लोक 26-35

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दशम स्कन्ध: एकसप्ततितमोऽध्यायः(71) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकसप्ततितमोऽध्यायः श्लोक 26-35 का हिन्दी अनुवाद


भगवान श्रीकृष्ण का श्रीविग्रह भगवती लक्ष्मीजी का पवित्र और एकमात्र निवास-स्थान है। राजा युधिष्ठिर अपनी दोनों भुजाओं से उसका आलिंगन करके समस्त पाप-तापों से छुटकारा पा गये। वे सर्वतपोभावेन परमानन्द के समुद्र में मग्न हो गये। नेत्रों में आँसू छलक आये, अंग-अंग पुलकित हो गया, उन्हें इस विश्व-प्रपंच के भ्रम का तनिक भी स्मरण न रहा ।तदनन्तर भीमसेन ने मुसकराकर अपने ममेरे भाई श्रीकृष्ण का आलिंगन किया। इससे उन्हें बड़ा आनन्द मिला। उस समय उनके ह्रदय में इतना प्रेम उमड़ा कि उन्हें बाह्य विस्मृति-सी हो गयी। नकुल, सहदेव और अर्जुन ने भी अपने परम प्रियतम और हितैषी भगवान श्रीकृष्ण का बड़े आनन्द से आलिंगन प्राप्त किया। उस समय उनके नेत्रों में आँसुओं की बाढ़-सी आ गयी थी । अर्जुन ने पुनः भगवान श्रीकृष्णका आलिंगन किया, नकुल और सहदेव ने अभिवादन किया और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने ब्राह्मणों और कुरुवंशी वृद्धों को यथायोग्य नमस्कार किया । कुरु, सृंजय और केकय देश के नरपतियों ने भगवान श्रीकृष्ण का सम्मान किया और भगवान श्रीकृष्ण ने भी उनका यथोचित सत्कार किया। सूत, मागध, बंदीज़न और ब्राह्मण भगवान की स्तुति करने लगे तथा गन्धर्व, नट, विदूषक आदि मृदंग, शंख, नगारे, वीणा, ढोल और नरसिंगे बजा-बजाकर कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने के लिये नाचने-गाने लगे । इस प्रकार परमयशस्वी भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सुहृद-स्वजनों के साथ सब प्रकार से सुसज्जित इन्द्रप्रस्थ नगर में प्रवेश किया। उस समय लोग आपस में भगवान श्रीकृष्ण की प्रशंसा करते चल रहे थे ।

इन्द्रप्रस्थ नगर की सड़कें और गलियाँ मतवाले हाथियों के मद से तथा सुगन्धित जल से सींच दी गयी थीं। जगह-जगह रंग-बिरंगी झंडियाँ लगा दी गयी थीं। सुनहले तोरन बाँधे हुए थे और सोने के जल भरे कलश स्थान-स्थान पर शोभा पा रहे थे। नगर के नर-नारी नहा-धोकर तथा नये वस्त्र, आभूषण, पुष्पों के हार, इत्र-फुलेल आदि से सज-धजकर घूम रहे थे । घर-घर में ठौर-ठौर पर दीपक जलाये गये थे, जिनसे दीपावली की-सी छटा हो रही थी। प्रत्येक घर के झरोखों से धूप का धूआँ निकलता हुआ बहुत ही भला मालूम होता था। सभी घरों के ऊपर पताकाएँ फहरा रहीं थीं तथा सोने के कलश और चाँदी के शिखकर जगमगा रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण इस प्रकार के महलों से परिपूर्ण पाण्डवों की राजधानी इन्द्रप्रस्थ नगर को देखते हुए आगे बढ़ रहे थे। जब युवतियों ने सुना कि मानव-नेत्रों के पानपात्र अर्थात् अत्यन्त दर्शनीय भगवान श्रीकृष्ण राजपथ पर आ रहे हैं, तब उनके दर्शन की उत्सुकता के आवेग से उनकी चोटियों और साड़ियों की गाँठें ढीली पड़ गयी। उन्होंने घर का काम-काज तो छोड़ ही दिया, सेज पर सोये हुए अपने पतियों को भी छोड़ दिया और भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन करने के लिये राजपथ पर दौड़ आयीं । सड़क पर हाथी घोड़े, रथ और पैदल सेना की भीड़ लग रही थी। उन स्त्रियों ने अटारियों पर चढ़कर रानियों के सहित भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन किया, उनके ऊपर पुष्पों की वर्षा की और मन-ही-मन आलिंगन किया तथा प्रेमभरी मुसकान एवं चितवन से उनका सुस्वागत किया ।





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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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