श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 1-11

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द्वादश स्कन्ध: षष्ठोऽध्यायः (6)

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: षष्ठोऽध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद

परीक्षित् की परमगति, जनमेजय का सर्पसत्र और वेदों के शाखा भेद श्रीसूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियों! व्यासनन्दन श्रीशुकदेव मुनि समस्त चराचर जगत् को अपनी आत्मा के रूप में अनुभव करते हैं और व्यवहार में सबके प्रति समदृष्टि रखते हैं। भगवान के शरणागत एवं उनके द्वारा सुरक्षित राजर्षि परीक्षित् ने उसका सम्पूर्ण उपदेश बड़े ध्यान से श्रवण किया। अब वे सिर झुकाकर उनके चरणों के तनिक और पास खिसक आये तथा अंजलि बाँधकर उनसे यह प्रार्थना करने लगे । राजा परीक्षित् ने कहा—भगवन्! आप करुणा के मुर्तिमान् स्वरुप हैं। आपने मुझपर परम कृपा करके अनादि-अनन्त, एकरस, सत्य भगवान श्रीहरि के स्वरुप और लीलाओं का वर्णन किया है। अब मैं आपकी कृपा से परम अनुगृहीत और कृतकृत्य हो गया हूँ । संसार के प्राणी अपने स्वार्थ और परमार्थ के ज्ञान से शून्य हैं और विभिन्न प्रकार के दुःखों के दावानल से दग्ध हो रहे हैं। उनके ऊपर भगवन्मय महात्माओं का अनुग्रह होना कोई नयी घटना अथवा आश्चर्य की बात नहीं है। यह तो उनके लिये स्वाभाविक ही है । मैंने और मेरे साथ बहुत-से लोगों ने आपके मुखारविन्द से इस श्रीमद्भागवत महापुराण का श्रवण किया है। इस पुराण में पद-पद पर भगवान श्रीहरि के उस स्वरुप और उन लीलाओं का वर्णन हुआ है, जिसके गान में बड़े-बड़े आत्माराम पुरुष रमते हैं । भगवन्! आपने मुझे अभयपद का, ब्रम्ह और आत्मा की एकता का साक्षात्कार करा दिया है। अब मैं परम शान्ति-स्वरुप ब्रम्ह में स्थित हूँ। अब मुझे तक्षक आदि किसी भी मृत्यु के निमित्त से अथवा दल-के-दल मृत्युओं से भी भय नहीं है। मैं अभय हो गया हूँ । ब्रम्हन्! अब आप मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं अपनी वाणी बंद कर लूँ, मौन हो जाऊँ और साथ कामनाओं के संस्कार से भी रहित चित्त को इन्द्रियातीत परमात्मा के स्वरुप में विलीन करके अपने प्राणों का त्याग कर दूँ । आपके द्वारा उपदेश किये हुए अज्ञान सर्वदा के लिये नष्ट हो गया। आपने भगवान के परम कल्याणमय स्वरप का मुझे साक्षात्कार करा दिया है । सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियों! राजा परीक्षित् ने भगवान श्रीशुकदेवजी से इस प्रकार कहकर बड़े प्रेम से उनकी पूजा की। अब वे परीक्षित् से विदा लेकर समागत त्यागी महात्माओं, भिक्षुओं के साथ वहाँ से चले गये । राजर्षि परीक्षित् ने भी बिना किसी बाह्य सहायता के स्वयं ही अपने अन्तरात्मा को परमात्मा के चिन्तन में समाहित किया अरु ध्यानमग्न हो गये। उस समय उनका श्वास-प्रश्वास भी नहीं चलता था, ऐसा जान पड़ता था मानो कोई वृक्ष का ठूँठ हो । उन्होंने गंगाजी के तट पर कुशों को इस प्रकार बिछा रखा था, जिसमें उनका अग्रभाव पूर्व की ओर हो और उन पर स्वयं उत्तर मुँह होकर बैठे उए थे। उनकी आसक्ति और संशय तो पहले ही मिट चुके थे। अब वे ब्रम्ह और आत्मा की एकता रूप महायोग में स्थित होकर ब्रम्हस्वरुप हो गये । शौनकादि ऋषियों! मुनिकुमार श्रृंगी ने क्रोधित होकर परीक्षित् को शाप दे दिया था। अब उनका भेजा हुआ तक्षक सर्प राजा परीक्षित् को डसने के लिये उनके पास चला। रास्ते में उसने कश्यप नाम के एक ब्राम्हण को देखा ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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