श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 1-14

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द्वितीय स्कन्ध:पञ्चम अध्यायः (5)

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: पञ्चम अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
सृष्टि-वर्णन


नारदजी ने कहा—पिताजी! आप केवल मेरे ही नहीं, सबके पिता, समस्त देवताओं से श्रेष्ठ एवं सृष्टिकर्ता हैं। आपको मेरा प्रणाम है। आप मुझे वह ज्ञान दीजिये, जिससे आत्म तत्व का साक्षात्कार हो जाता है । पिताजी! इस संसार का क्या लक्षण है ? इसका आधार क्या है ? इसका निर्माण किसने किया है ? इसका प्रलय किसमें होता है ? यह किसके अधीन है ? और वास्तव में यह है क्या वस्तु ? आप इसका तत्व बतलाइये । आप तो यह सब कुछ जानते हैं; क्योंकि जो कुछ हुआ है, हो रहा है या होगा, उसके स्वामी आप ही हैं। यह सारा संसार हथेली पर रखे हुए आँवले के समान आपकी ज्ञान की दृष्टि के अन्तर्गत ही हैं । पिताजी! आपको यह ज्ञान कहाँ से मिला ? आप किसके आधार पर ठहरे हुए है ? आपका स्वामी कौन है ? और आपका स्वरुप क्या है ? आप अकेले ही अपनी माया से पंचभूतों के द्वारा प्राणियों की सृष्टि कर लेते हैं, कितना अद्भुत है! जैसे मकड़ी अनायास ही अपने मुँह से जाला निकाल कर उसमें खेलने लगती हैं, वैसे ही आप अपनी शक्ति के आश्रय से जीवों को अपने में ही उत्पन्न करते हैं और फिर आप में कोई विकार नहीं होता । जगत् में नाम, रूप और गुणों से जो कुछ जाना जाता है उसमें मैं ऐसी कोई सत्, असत्, उत्तम, मध्यम या अधम वस्तु नहीं देखता जो आपके सिवा और किसी से उत्पन्न हुई हो । इस प्रकार सबके ईश्वर होकर भी आपने एकाग्रचित्त से घोर तपस्या की, इस बात से मुझे मोह के साथ-साथ बहुत बड़ी शंका भी हो रही है कि आपसे बड़ा भी कोई है क्या । पिताजी! आप सर्वज्ञ और सर्वेश्वर हैं। जो कुछ मैं पूछ रहा हूँ, वह सब आप कृपा करके मुझे इस प्रकार समझाइये कि जिससे मैं आपके उपदेश को ठीक-ठीक समझ सकूँ । ब्रम्हाजी ने कहा—बेटा नारद! तुमने जीवों के प्रति करुणा के भाव से भरकर यह बहुत ही सुन्दर प्रश्न किया है; क्योंकि इससे भगवान के गुणों का वर्णन करने की प्रेरणा मुझे प्राप्त हुई है । तुमने मेरे विषय में जो कुछ कहा है, तुम्हारा वह कथन भी असत्य नहीं है; क्योंकि जब तक मुझसे परे का तत्व—जो स्वयं भगवान ही हैं—जान नहीं लिया जाता, तब तक मेरा ऐसा ही प्रभाव प्रतीत होता है । जैस सूर्य, अग्नि, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारे उन्हीं के प्रकाश से प्रकाशित होकर जगत् में प्रकाश फैलाते हैं, वैसे ही मैं भी उन्हीं स्वयं प्रकाश भगवान के चिन्मय प्रकाश से प्रकाशित होकर संसार को प्रकाशित कर रहा हूँ । उन भगवान वासुदेव की मैं वन्दना करता हूँ और ध्यान भी, जिनकी दुर्जय माया से मोहित होकर लोग मुझे जगद्गुरु कहते हैं । यह माया तो उनकी आँखों के सामने ठहरती ही नहीं, झेंपकर दूर से ही भाग जाती हैं। परन्तु संसार के अज्ञानीजन उसी से मोहित होकर ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है’ इस प्रकार बकते रहते हैं । भगवत्स्वरूप नारद! द्रव्य, कर्म, काल, स्वभाव और जीव—वास्तव में भगवान से भिन्न दूसरी कोई भी वस्तु नहीं है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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