श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 29-36

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प्रथम स्कन्धः दशम अध्यायः (10)

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः दशम अध्यायः श्लोक 29-36 का हिन्दी अनुवाद
श्रीकृष्ण का द्वारका-गमन


ये स्वयंवर में शिशुपाल आदि मतवाले राजाओं का मान मर्दन करके जिनको अपने बाहुबल से हर लाये थे तथा जिनके पुत्र प्रद्दुम्न, साम्ब, आम्ब आदि हैं, वे रुक्मिणी आदि आठों पटरानियाँ और भौमासुर को मारकर लायी हुई जो इनकी हजारों अन्य पत्नियाँ हैं, वे वास्तव में धन्य हैं। क्योंकि इन सभी ने स्वतन्त्रता और पवित्रता से रहित स्त्री जीवन को पवित्र और उज्ज्वल बना दिया है। इनकी महिमा का वर्णन कोई क्या करे। इनके स्वामी साक्षात् कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण हैं, जो नाना प्रकार की प्रिय चेष्टाओं तथा पारिजातादि प्रिय वस्तुओं की भेंट से इनके ह्रदय में प्रेम एवं आनन्द की अभिवृद्धि करते हुए कभी एक क्षण के लिये भी इन्हें छोड़कर दूसरी जगह नहीं जाते । हस्तिनापुर स्त्रियाँ इस प्रकार बातचीत कर ही रही थीं कि भगवान श्रीकृष्ण मन्द मुसकान और प्रेम पूर्ण चितवन से उनका अभिनन्दन करते हुए वहाँ से विदा हो गये । अजातशत्रु युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण की रक्षा के लिये हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना उनके साथ कर दी; उन्हें स्नेहवश यह शंका हो आयी थी कि कहीं रास्ते में शत्रु इन पर आक्रमण न कर दें । सुदृढ़ प्रेम के कारण कुरुवंशी पाण्डव भगवान के साथ बहुत दूर तक चले गये। वे लोग उस समय भावी विरह से व्याकुल हो रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें बहुत आग्रह करके विदा किया और सात्यकि, उद्धव आदि प्रेमी मित्रों के साथ द्वारका की यात्रा की । शौनकजी! वे कुरुजांगल, पांचाल, शूरसेन, यमुना के तटवर्ती प्रदेश ब्रम्हावर्त, कुरुक्षेत्र, मत्स्य, सारस्वत और मरुधन्व देश को पार करके सौवीर और आभीर देश के पश्चिम आनर्त देश में आये। उस समय अधिक चलने के कारण भगवान के रथ के घोड़े कुछ थक-से गये थे । मार्ग में स्थान-स्थान पर लोग उपहारादि के द्वारा भगवान का सम्मान करते, सायंकाल होने पर वे रथ पर से भूमि पर उतर आते और जलाशय पर जाकर सन्ध्या-वन्दन करते। यह उनकी नित्यचर्चा थी ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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