श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 18 श्लोक 43-50

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प्रथम स्कन्धः अष्टादश अध्यायः (18)

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः अष्टादश अध्यायः श्लोक 43-50 का हिन्दी अनुवाद
महाराज परीक्षित् के द्वारा कलियुग का दमन

जिस समय राजा का रूप धारण करके भगवान पृथ्वी पर नहीं दिखायी देंगे, उस समय चोर बढ़ जायँगे और अरक्षित भेड़ों के समान एक क्षण में ही लोगों का नाश हो जायगा । राजा के नष्ट हो जाने पर धन आदि चुराने वाले चोर जो पाप करेंगे, उसके साथ हमारा कोई सम्बन्ध न होने पर भी वह हम पर भी लागू होगा। क्योंकि राजा के न रहने पर लुटेरे बढ़ जाते हैं और वे आपस में मार-पीट, गाली-गलौज करते हैं, साथ पशु, स्त्री और धन-सम्पत्ति भी लुट लेते हैं । उस समय मनुष्यों का वर्णाश्रमाचार-युक्त वैदिक आर्य धर्म लुप्त हो जाता है, अर्थ-लोभ और काम-वासना के विवश होकर लोग कुत्तों और बंदरों के समान वर्ण संकर हो जाते हैं। सम्राट् परीक्षित् तो बड़े ही यशस्वी और धर्मधुरन्धर हैं। उन्होंने बहुत-से अश्वमेध यज्ञ किये हैं और वे भगवान के परम प्यारे भक्त हैं; वे ही राजर्षि भूख-प्यास से व्याकुल होकर हमारे आश्रम पर आये थे, वे शाप के योग्य कदापि नहीं हैं । इस नासमझ बालक ने हमारे निष्पाप सेवक राजा का अपराध किया है, सर्वात्मा भगवान कृपा करके इसे क्षमा करें । भगवान ने भक्तों में भी बदला लेने की शक्ति होती है, परंतु वे दूसरों के द्वारा किये हुए अपमान, धोखेबाजी, गाली-गलौज, आक्षेप और मार-पीट का कोई बदला नहीं लेते । महामुनि शमीक को पुत्र के अपराध पर बड़ा पश्चाताप हुआ। राजा परीक्षित् ने जो उसका अपमान किया था, उस पर तो उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया । महात्माओं का स्वभाव ही ऐसा होता है कि जगत् में जब दूसरे लोग उन्हें सुख-दुःखादि द्वन्दों में डाल देते हैं, तब भी वे प्रायः हर्षित या व्यथित नहीं होते; क्योंकि आत्मा का स्वरुप तो गुणों से सर्वथा परे है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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