महाभारत आदि पर्व अध्याय 73 श्लोक 26-35
त्रिसप्ततितम (73) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
‘भद्रे ! आज तुमने मेरी अवहेलना करके जो एकान्त में किसी पुरुष के साथ सम्बन्ध स्थापित किया है, वह तुम्हारे धर्म का नाशक नहीं है। ‘क्षत्रिय के लिये गान्धर्व विवाह श्रेष्ठ कहा गया है। स्त्री और पुरुष दोनों एक दूसरे को चाहते हों, उस दशा में उन दोनों का एकान्त में जो मन्त्रहीन सम्बन्ध स्थापित होता है, उसे गान्धर्व विवाह कहा गया है। ‘शकुन्तले ! महामना दुष्यन्त धर्मात्मा और श्रेष्ठ पुरुष हैं। वे तुम्हें चाहते थे। तुमने योग्य पति के साथ सम्बन्ध स्थापित किया है; इसलिये लोक में तुम्हारे गर्भ से एक महाबली और महात्मापुत्र उत्पन्न होगा, जो समुद्र से घिरी हुई इस समूची पृथ्वी का उपभोग करेगा। ‘शत्रुओं पर आक्रमण करने वाले उन महामना चक्रवर्ती नरेश की सेना सदा अप्रतिहत होगी। उसकी गति को कोई रोक नहीं सकेगा’। तदनन्तर शकुन्तला ने उनके लाये हुए फल के भार को लेकर यथास्थान रख दिया। फिर उनके दोनों पैर धाये तथा जब वे भोजन और विश्राम कर चुके, तब वह मुनि से इस प्रकार बोली। शकुन्तला ने कहा- भगवन् ! मैंने पुरुषों में श्रेष्ठ राजा दुष्यन्त का पति रुप में वरण किया है। अत: मन्त्रियों सहित उन नरेश पर आपको कृपा करनी चाहिये। कण्व बोले- उत्तम वर्ण वाली पुत्री ! मैं तुम्हारे भले के लिये राजा दुष्यन्त पर भी प्रसन्न ही हूं। शचिस्मिते ! अब तक तेरे बहुत-से ॠतु व्यर्थ बीत गये हैं। इस बार यह सार्थक हुआ है। अनघे ! तुम्हें पाप नहीं लगेगा। शुभे ! तुम्हारी जो इच्छा हो, वह वर मुझसे मांग लो। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! तब शकुन्तला ने दुष्यन्त की हित की इच्छा से यह वर मांगा कि पुरुवंशी नरेश सदा धर्म में स्थिर रहें और वे कभी राज्यसे भ्रष्ट न हों। उस समय धर्मात्माओं में श्रेष्ठ कण्व ने उससे कहा- ‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो)। यह कह कर उन्होंने मूर्तिमति लक्ष्मी–सी पुत्री शकुन्तला का दोनों हाथों से स्पर्श किया और कहा। कण्व बोले- बेटी ! आज से तू महात्मा राजा दुष्यन्त की महारानी है। अत: पतिव्रता स्त्रियों का जो बर्ताव तथा सदाचार है, उसका निरन्तर पालन कर।
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