महाभारत आदि पर्व अध्याय 74 श्लोक 12-17

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चतु:सप्ततितम (74) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: चतु:सप्ततितम अध्‍याय: श्लोक 12-17 का हिन्दी अनुवाद

‘स्त्रियों का अपने भाई-बन्‍धुओं के यहां अधिक दिनों तक रहना अच्‍छा नहीं होता। वह उनकी कीर्ति, शील, तथा पातिव्रत्‍य धर्म का नाश करने वाला होता है। अत: इसे अविलम्‍व पति के घर में पहुंचा दो’। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! कश्‍यपनन्‍दन कण्‍व ने धर्मानुसार मेरे पुत्र का बड़ा आदर किया है, यह देखकर तथा उनकी ओर से पति के घर जाने की आज्ञा पाकर शकुन्‍तला मन-ही-मन बहुत प्रसन्‍न हुई। कण्‍व के मुख से बारंबार ‘जाओ-जाओ’ यह आदेश सुनकर पुरुनन्‍दन सर्वदमन ने ‘तथास्‍तु’ कहकर उनकी आज्ञा शिरोधार्य की और माता से कहा- ‘मा ! तुम क्‍यों विलम्‍ब करती हो, चलो राजमहल चलें’। देवी शकुन्‍तला से ऐसा कहकर पौरवराज कुमार ने मुनि के चरणों में मस्‍तक झुकाकर महात्‍मा राजा दुष्‍यन्‍त के यहां जाने का विचार किया। शकुन्‍तला ने भी हाथ जोड़कर पिता को प्रणाम किया और उनकी परिक्रमा करके उस समय यह बात कही- ‘भगवन् ! काश्‍यप ! आप मेरे पिता हैं, यह यह समझकर मैंने अज्ञानवश यदि कोई कठोर या असत्‍य बात कह दी हो अथवा न करने योग्‍य या अप्रिय कार्य कर डाला हो, तो उसे आप क्ष्‍ामा कर देंगे’। शकुन्‍तला के ऐसा कहने पर सिर झुकाकर बैठे हुए कण्‍व मुनि कुछ बोल न सके; मानव-स्‍वभाव अनुसार करुणा का उदय हो जाने से नेत्रों से आंसू बहाने लगे। उनके आश्रम में बहुत-से ऐसे मुनि रहते थे, जो जल पीकर, वायु पीकर अथवा सूखे पत्ते खाकर तपस्‍या करते थे। फल-मूल खाकर रहने वाले भी बहुत थे। वे सब-के-सब जितेन्द्रिय एवं दुर्बल शरीर वाले थे। उनके शरीर की नश-नाड़ियां स्‍पष्ट दिखाई देती थीं। उत्तम ब्रतों का पालन करने वाले उन महर्षियों में से कितने ही सिर पर जटा धारण करते थे और कितने ही सिर मुड़ाये रहते थे। कोई बल्‍कल धारण करतेथे और कोई मृगचर्म लपेटे रहते थे। महर्षि कण्‍व ने उन मुनियों को बुलाकर करुण भाव से कहा- ‘महर्षियो ! यह मेरी यशस्विनी पुत्री वन में उत्‍पन्न हुई और यहीं पलकर इतनी बड़ी हुई है। मैंने सदा इसे लाड़-प्‍यार किया है। यह कुछ नहीं जानती है। बिप्रगण ! तुम सब लोग इसे ऐसे मार्ग से राजा दुष्‍यन्‍त के घर ले जाओ जिसमें अधिक श्रम न हो’। ‘बहुत अच्‍छा’ कहकर वे सभी महा तेजस्‍वी शिष्‍य (पुत्र सहित) शकुन्‍तला को आगे करके दुष्‍यन्‍त के नगर की ओर चले। तदनन्‍तर सुन्‍दर भौहों वाली शकुन्‍तला कमल के समान नेत्रों वाले देव बालक के सदृश तेजस्‍वी पुत्र को साथ ले अपने परिचित तपोवन से चलकर महाराज दुष्‍यन्‍त के यहां आयी। राजा के यहां पहुंचकर अपने आगमन की सूचना दे अनुमति लेकर वह उसी बालसूर्य के समान तेजस्‍वी पुत्र के साथ राजसभा में प्रविष्ट हुई। सब शिष्‍यगण राजा को महर्षि का संदेश सुनाकर पुन: आश्रम लौट आये और शकुन्‍तला न्‍यायपूर्वक महाराज के प्रति सम्‍मान भाव प्रकट करती हुई पुत्र से बोली-‘बेटा ! दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले ये महाराज तुम्‍हारे पिता हैं; इन्‍हें प्रणाम करो।‘ पुत्र से ऐसा कहकर शकुन्‍तला लज्जा से मुख नीचा किये एक खंभे का सहारा लेकर खड़ी हो गयी और महाराज से बोली- ‘देव ! प्रसन्न हों।‘ शकुन्‍तला का पुत्र भी हाथ जोड़कर राजा को प्रणाम करके उन्‍हीं की ओर देखने लगा। उसके नेत्र हर्ष से खिल उठे थे। राजा दुष्‍यन्‍त ने उस समय धर्मबुद्धि से कुछ विचार करते हुए ही कहा। दुष्‍यन्‍त बोले-सुन्‍दरी ! यहां तुम्‍हारे आगमन का क्‍या उद्देश्‍य है? बताओ। विशेषत: उस दशा में जब कि तुम पुत्र के साथ आयी हो, मैं तुम्‍हारा कार्य अवश्‍य सिद्ध करुंगा; इसमें संदेह नहीं। शकुन्‍तला ने कहा- महाराज ! आप प्रसन्न हों। पुरुषोत्तम ! मैं अपने आगमन का उद्देश्‍य बताती हूं, सुनिये। राजन् ! यह आपका पुत्र है। इसे आप युवाराज-पद पर अभिषिक्त कीजिये। महाराज ! यह देवोपम कुमार आपके द्वारा मेरे गर्भ से उत्‍पन्न हुआ है। पुरुषोत्तम ! इसके लिये आपने मेरे साथ जो शर्त कर रक्‍खी है, उसका पालन कीजिये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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