महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 295 श्लोक 16-32

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पञ्चनवत्‍यधिकद्विशततम (295) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: पञ्चनवत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 16-32 का हिन्दी अनुवाद

तात ! आदित्‍य, वसु, रूद्र, अग्नि, अश्विनी कुमार, वायु, विश्‍वेदेव, साध्‍य, पितर, मरूदगण, यक्ष, राक्षस, गन्‍धर्व, सिद्ध तथा अन्‍य जो स्‍वर्ग वासी देवता हैं, वे सब-के-सब तपस्‍या से ही सिद्धि को प्राप्‍त हुए हैं । ब्रह्माजी ने पूर्वकाल में जिन मरीचि आदि ब्राह्मणों को उत्‍पन्‍न किया था, वे तपके ही प्रभाव से पृथ्‍वी और आकाश को पवित्र करते हुए ही विचरते हैं । मर्त्‍य लोक में भी जो राजे-महाराजे तथा अन्‍यान्‍य गृहस्‍थ महान कुलों में उत्‍पन्‍न देखे जाते हैं, वह सब उनकी तपस्‍या का फल है । रेशमी वस्‍त्र, सुन्‍दर आभूषण, वाहन, आसन और उत्‍तम खान-पान आदि सब कुछ तपस्‍या का ही फल है । मन के अनुकूल चलने वाली सहस्‍त्रों रूपवती युवतियाँ और महलों का निवास आदि सब कुछ तपस्‍या का ही फल है । श्रैष्‍ठ शय्‍या, भाँति-भाँति के उत्‍तम भोजन तथा सभी मनोवांछित पदार्थ पुण्‍यकर्म करने वाले लोगों को ही प्राप्‍त होते हैं । परंतप ! त्रिलोकी में कोई ऐसी वस्‍तु नहीं है, जो तपस्‍या से प्राप्‍त न हो सके किंतु जिन्‍होंने काम्‍य अथवा निषिद्ध कर्म नहीं किये हैं, उनकी तपस्‍या का फल सुखभोगों का परित्‍याग ही है । नृपश्रेष्‍ठ ! मनुष्‍य सुख में हो या दुख में मन और बुद्धि से शास्‍त्र का तत्‍व समझकर लोभ का परित्‍याग कर दे । असंतोष दुख का ही कारण है। लोभ से मन और इन्द्रियाँ चंचल होती हैं, उससे मनुष्‍य की बुद्धि उसी प्रकार नष्‍ट हो जाती है, जैसे बिना अभ्‍यास के विद्या । जब मनुष्‍य की बुद्धि नष्‍ट हो जाती है, तब वह न्‍याय को नहीं देख पाता अर्थात कर्तव्‍य और अकर्तव्‍य का निर्णय नहीं कर पाता है। इसलिये सुख का क्षय हो जाने पर प्रत्‍येक पुरूष को घोर तपस्‍या करनी चाहिये । जो अपने को प्रिय जान पड़ता है, उसे सुख कहते हैं तथा जो मन के प्रतिकूल होता है, वह दुख कहलाता है। तपस्‍या करने से सुख और न करने से दुख होता है। इस प्रकार तप करने और न करने का जैसा फल होता है, उसे तुम भलीभाँति समझ लो । मनुष्‍य पापरहित तपस्‍या करके सदा अपना कल्‍याण ही देखते हैं। मनोवांछित विषयों का उपभोग करते हैं और संसार में उनकी ख्‍याति होती है । मन के अनुकूल फल की इच्‍छा रखने वाला मनुष्‍य सकाम कर्म का अनुष्‍ठान करके अप्रिय, अपमान और नाना प्रकार के दुख पाता है, किंतु उस फल का परित्‍याग करके वह सम्‍पूर्ण विषयों के आत्‍मस्‍वरूप परब्रह्म परमेश्‍वर को प्राप्‍त कर लेता है । जिसे धर्म, तपस्‍या और दान में संशय उत्‍पन्‍न हो जाता है, वह पापकर्म करके नरक में पड़ता है । नरश्रेष्‍ठ ! मनुष्‍य सुख में हो या दुख में, जो सदाचार से कभी विचलित नही होता, वही शास्‍त्र का ज्ञाता है । प्रजानाथ ! बाण को धनुष से छूटकर पृथ्‍वीपर गिरने में जितनी देर लगती है, उतना ही समय स्‍पर्शेन्द्रिय, रसना, नेत्र, नासिका और कान के विषयों का सुख अनुभव करने में लगता है अर्थात विषयों का सुख क्षणिक है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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