महाभारत आदि पर्व अध्याय 74 श्लोक 18-33

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०७:४३, ३० जुलाई २०१५ का अवतरण
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

चतु:सप्ततितम (74) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: चतु:सप्ततितम अध्‍याय: श्लोक 18-33 का हिन्दी अनुवाद

महाभाग ! आपने कण्‍व के आश्रम पर मेरे समागम के समय पहले जो प्रतिज्ञा की थी, उसका इस समय स्‍मरण कीजिये । राजा दुष्‍यन्‍त ने शकुन्‍तला का यह वचन सुनकर सब बातों को याद रखते हुए भी उससे इस प्रकार कहा- ‘दुष्ट तपस्विनि ! मुझे कुछ भी याद नहीं है। तुम किसकी स्त्री हो? ‘तुम्‍हारे साथ मेरा धर्म, काम अथवा अर्थ को लेकर वैवाहिक सम्‍बन्‍ध स्‍थापित हुआ है, इस बात का मुझे तनिक भी स्‍मरण नहीं है। तुम इच्‍छानुसार जाओ या रहो अथवा जैसी तुम्‍हारी रुचि हो, वैसा करो’। सुन्‍दर अंग वाली तपस्विनी शकुन्‍तला दुष्‍यन्‍त के ऐसा कहने पर लज्जित हो दु:ख से बेहोश-सी हो गयी और खंभे की तरह निश्चलभाव से खड़ी रह गयी। क्रोध और अमर्ष से उसकी आंखें लाल हो गयीं, ओठ फड़कने लगे और मानो जला देगी, इस भाव से टेढ़ी चितवन द्वारा राजा की ओर देखने लगी। क्रोध उसे उत्तेजित कर रहा था, फि‍र भी उसने अपने आकार को छिपाये रक्‍खा और तपस्‍या द्वारा संचित किये हुए अपने तेज को वह अपने भीतर ही धारण किये रही। वह दो घड़ी तक कुछ सोच-विचार-सा करती रही, फि‍र दु:ख और अमर्ष में भरकर पति की ओर देखती हुई क्रोधपूर्वक बोली- ‘महाराज ! आप जान-बूझकर भी दूसरे-दूसरे निम्न कोटि के मनुष्‍यों की भांति नि:शंक होकर ऐसी बात क्‍यों कहते हैं कि ‘मैं नहीं जानता’। ‘इस विषय में यहां क्‍या झूठ है और क्‍या सच, इस बात को आपका हृदय ही जानता होगा। उसी को साक्षी बनाकर- हृदय पर हाथ रखकर सही-सही कहिये, जिससेआपका कल्‍याण हो। आप अपने आत्‍मा की अवहेलना न कीजिये। ‘(आपका स्‍वरुप तो कुछ और है’ परंतु आप बन कुछ और रहे हैं। ) जो अपने असली स्‍वरुप को छिपाकरअपने को कुछ का कुछ दिखाता है, अपने आत्‍मा का अपहरण करने वाले उस चोर ने कौन-सा पाप नहीं किया? ‘आप समझ रहे हैं कि उस समय मैं अकेला था (कोई देखनेवाला नहींथा), परंतु आपको पता नहीं कि सनातन मुनि (परमात्‍मा) सबके हृदय में अन्‍तर्यामी रुप से विद्यमान है। वह सबके पाप-पुण्‍य को जानता है और आप उसी के निकट रहकर पाप कर रहे हैं। ‘जो सदा असत्‍य से दूर रहने वाले हैं, उन समस्‍त साधु पुरुषों की दृष्टि में केवल धर्म ही हित कारक है। धर्म कभी दु:खदायक नहीं होता। मनुष्‍य पाप करके यह समझता है कि मुझे कोई नहीं जानता, किंतु उसका यह समझना भारी भूल है; क्‍योंकि सब देवता और अन्‍तर्यामी परमात्‍मा भी मनुष्‍य के उस पाप-पुण्‍य को देखते और जानते हैं। ‘सूर्य, चन्‍द्रमा, वायु, अग्नि, अन्‍तरिक्ष, पृथ्‍वी, जल, हृदय, यमराज, दिन, रात, दोनों संध्‍याऐं और धर्म- ये सभी मनुष्‍य के भले-बुरे आचार-व्‍यवहार को जानते हैं। ‘जिस पर हृदयस्थित कर्म साक्षी क्षेत्रज्ञ परमात्‍मा संतुष्ट रहते हैं, सूर्यपुत्र यमराजउसके सभी पापों को स्‍वयं नष्ट कर देते हैं। ‘परंतु जिस दुरात्‍मा पर अन्‍तर्यामी संतुष्ट नहीं होते, यमराज उस पापी को उसके पापों का स्‍वयं दण्‍ड देते हैं। ‘जो स्‍वयं अपने आत्‍मा का तिरस्‍कार करके कुछ-का-कुछ समझता है, देवता भी उसका भला नहीं कर सकते और उसका आत्‍मा भी उसके हित का साधन नहीं कर सकता।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।