महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 303 श्लोक 16-32

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १०:२२, ३० जुलाई २०१५ का अवतरण ('==त्रयधिकत्रिशततम (303) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

त्रयधिकत्रिशततम (303) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रयधिकत्रिशततम अध्याय श्लोक 16-32 का हिन्दी अनुवाद

कभी एक रात का अन्‍तर देकर भोजन करता है, कभी दिन-रात में एक बार अन्‍न ग्रहण करता है और कभी दिन के चौथे, छठे या आठवें पहर में भोजन करता है । कभी छ: रात बिताकर खाता है और कभी सात, आठ, दस अथवा बारह दिनों के बाद अन्‍न ग्रहण करता है । कभी लगातार एक मास तक उपवास करता है। कभी फल खाकर रहता है और कभी कन्‍द-मूल के भोजन से निर्वाह करता है।कभी पानी-हवा पीकर रह जाताहै। कभी तिलकी खली, कभी दही और कभी गोबर खाकर ही रहता है । कभी वह गोमूत्र भोजन करने वाला बनता है। कभी वह साग, फूल या सेवार खाता है तथा कभी जल का आचमन मात्र करके जीवन-निर्वाह करता है। कभी सूखे पत्‍ते और पेड़ से गिरे हुए फलों को ही खाकर रह जाता है। इस प्रकार सिद्धि पाने की अभिलाषा से वह नाना प्रकार के कठोर नियमों का सेवन करता है । कभी विधिपूर्वक चान्‍द्रायण-व्रत का अनुष्‍ठान करता और अनेक प्रकार के धार्मिक चिन्‍ह धारण करता है। कभी चारों आश्रमों के मार्ग पर चलता और कभी विपरीत पथ का भी आश्रय लेता है । कभी नाना प्रकार के उपाश्रमों तथा भाँति-भाँति के पाखण्‍डों को अपनाता है। कभी एकान्‍त में शिलाखण्‍डों की छाया में बैठता और कभी झरनों के समीप निवास करता है । कभी नदियों के एकान्‍त तटों में, कभी निर्जन वनों में, कभी पवित्र देवमन्दिरों में तथा कभी एकान्‍त सरोवरों के आसपास रहता है । कभी पर्वतों की एकान्‍त गुफाओं में, जो गृह के समान ही होती हैं, निवास करता है। उन स्‍थानों में नाना प्रकार के गोपनीय जप, व्रत, नियम, तप, यज्ञ तथा अन्‍य भाँति-भाँति के कर्मों का अनुष्‍ठान करता है । वह कभी व्‍यापार करता, कभी ब्राह्मण और क्षत्रियों के कर्तव्‍य का पालन करता तथा कभी वैश्‍यों और शूद्रों के कर्मों का आश्रय लेता। दीन-दुखी और अन्‍धों को नाना प्रकार के दान देता है। अज्ञानवश वह अपने में सत्‍व, रज, तम-इन त्रिविध गुणों और धर्म, अर्थ एवं काम का अभिमान कर लेता है। इस प्रकार आत्‍मा प्रकृति के द्वारा अपने ही स्‍वरूप के अनेक विभाग करता है। वह कभी स्‍वाहा, कभी स्‍वधा, कभी वषट्कार और कभी नमस्‍कार में प्रवृत होता है। कभी यज्ञ करता और कराता, कभी वेद पढता और पढाता तथा कभी दान करता और प्रतिग्रह लेता है। इसी प्रकार वह दूसरे-दूसरे कार्य भी किया करता है । कभी जन्‍म लेता, कभी मरता तथा कभी विवाद और संग्राम में प्रवृत रहता है। विद्वान पुरूषों का कहना है कि यह सब शुभाशुभ कर्ममार्ग है । प्रकृति देवी ही जगत की सृष्टि और प्रलय करती है। जैसे सूर्य प्रतिदिन प्रात:काल अपनी किरणों को सब ओर फैलाता और सायंकाल में अपने किरण-जाल को समेट लेता है, वैसे ही आदि पुरूष ब्रह्मा अपने दिन-कल्‍प के आरम्‍भ में तीनों गुणों का विस्‍तार करता और अन्‍त में सबको समेटकर अकेला ही रह जाता है । इस प्रकार प्रकृति से संयुक्‍त हुआ पुरूष तत्‍व ज्ञान होने से पहले मन को प्रिय लगने वाले नाना प्रकार के अपने व्‍यापारों को क्रीड़ा के लिये बार-बार करता और उन्‍हें अपना कर्तव्‍य मानता है ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।