महाभारत आदि पर्व अध्याय 76 श्लोक 21-37

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०५:०५, ३१ जुलाई २०१५ का अवतरण ('==षट्सप्ततितम (76) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)== <div style="te...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

षट्सप्ततितम (76) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: षट्सप्ततितम अध्‍याय: श्लोक 21-37 का हिन्दी अनुवाद

शुक्राचार्य ने कहा- कच ! तुम्‍हारा भलीभांति स्‍वागत है; मैं तम्‍हारी प्रार्थना स्‍वीकार करता हूं। तुम मेरे लिये आदर के पात्र हो, अत: मैं तुम्‍हारा सम्‍मान एवं सत्‍कार करुंगा। तुम्‍हारे आदर सत्‍कार से मेरे द्वारा बृहस्‍पति का आदर-सत्‍कार होगा। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- तब कच ने ‘बहुत अच्‍छा’ कहकर महा कान्तिमान् कवि पुत्र शुक्राचार्य के आदेश के अनुसार स्‍वयं ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया। जनमेजय ! नियत समय तक के लिये व्रत की दीक्षा लेने वाले कच को शुक्राचार्य ने भली-भांति अपना लिया। कच आचार्य शुक्र तथा उनकी पुत्री देवयानी दोनों की नित्‍य आराधना करने लगे। वे नवयुवक थे और जवानी में प्रिय लगने वाले कार्य-गायन और नृत्‍य करके तथा भांति-भांति के बाजे वजाकर देवयानी को संतुष्ट रखते थे। भारत ! आचार्यकन्‍या देवयानी भी युवावस्‍था में पदार्पण कर चुकी थी। कच उसके लिये फूल और फल ले आते तथा उसकी आज्ञा के अनुसार कार्य करते थे। इस प्रकार उसकी सेवा में संलग्‍न रहकर वे सदा उसे प्रसन्न रखते थे । देवयानी भी नियम पूर्वक ब्रह्मचर्य धारण करने वाले कच के ही समीप रहकर गाती और आमोद-प्रमोद करती हुई एकान्‍त में उनकी सेवा करती थी। इस प्रकार वहीं रहकर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए कच के पांच सौ वर्ष व्‍यतीत हो गये। तब दानवों को यह बात मालूम हुई। तदनन्‍तर कच को वन के एकान्‍त प्रदेश में अकेले गौऐं चराते देख बृहस्‍पति के द्वेष से और संजीविनी विद्या की रक्षा के लिये क्रोध में भरे हुए दानवों ने कच को मार डाला। उन्‍होंने मारने के बाद उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर कुत्तों और सियारों को बांट दिया। उन दिन गौऐं बिना रक्षक के ही अपने स्‍थान पर लौटीं। जनमेजय ! जब देवयानी ने देखा, गौऐं तो वन से लौट आयीं पर उनके साथ कच नहीं है, तब उसने उस समय अपने पिता से इस प्रकार कहा। देवयानी बोली- प्रभो ! आपने अग्निहोत्र कर लिया और सूर्यदेव भी अस्‍ताचल को चले गये। गौऐं भी आज बिना रक्षक के ही लौट आयी हैं। तात ! तो भी कच नहीं दिखाई देते हैं। पिताजी ! अवश्‍य की कच या तो मारे गये हैं या मर गये हैं। मैं आपसे सच कहती हूं, उनके बिना जीवित नहीं रह सकूंगी। शुक्राचार्य ने कहा- (बेटी ! चिन्‍ता न करो।) मैं अभी ‘आओ’ इस प्रकार बुलाकर मरे हुए कच को जीवित किये देता हूं। ऐसा कहकर उन्‍होंने संजीविनी विद्या का प्रयोग किया और कच को पुकारा। फि‍र तो गुरु के पुकारने पर कच विद्या के प्रभाव से हृष्ट-पुष्टहो कुत्तों के शरीर फाड़-फाड़कर निकल आये और वहां प्रकट हो गये। उन्‍हें देखते ही देवयानी ने पूछा-‘आज आपने लौटने में बिलम्‍व क्‍यों किया?’ इस प्रकार पूछने पर कच ने शुक्राचार्य की कन्‍या से कहा-‘भामिनि ! मैं समिधा, कुश आदि और काष्ठ का भार लेकर आ रहा था। रास्‍ते में थकावट और भारत से पीड़ित हो एक बट वृक्ष के नीचे ठहर गया। साथ ही सारी गौऐं भी उसी वृक्ष की छाया में आकर विश्राम करने लगीं। ‘वहां मुझे देखकर असुरों ने पूछा- ‘तुम कौन हो?’ मैंने कहा- मेरा नाम कच है, मैं बृहस्‍पति का पुत्र हूं।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।